जब अपनी हालत से निराश होने लगें

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बहुत पहले से देख रहा हूँ। इमैजिनेशन (कल्पनाएँ करने) की आदत है। अब यहाँ तीन महीने से हूँ तो इसे और गहराई से देखने के लिए मिला। बहुत ज़्यादा गहराई तक है यह।

मैं सही-सही बताऊँ तो कोई मुझसे बात करता है तो मुझे उसकी आधी बात सुनाई ही नहीं देती। अगर तुरंत मुझसे पूछा जाए कि उसने क्या बोला, तो आधे से ज़्यादा बार तो मुझे पता ही नहीं चलता कि उसने क्या बोला।

जैसे आप कहते हैं कि सार्थक कर्म में डूबो तो ये चीज़ें कम हो जाती हैं। सार्थक कर्म में डूबने के लिए भी शुरू में थोड़ा एफर्ट (प्रयास) करना पड़ता है और उसमें बार-बार ऐसा लगता है असफल हो जा रहा हूँ। उससे निराशा बहुत हो जाती है।

ऐसा लगता है कि कहीं मंद बुद्धि जैसा हो गया हूँ क्या मैं। रास्ते पर जा रहा हूँ तो रास्ते का पता नहीं।

आचार्य प्रशांत: गलती कर रहे हो। गलती ये नही है कि मंद बुद्धि हो, गलती ये है कि उम्मीद करते हो की तीव्र बुद्धि होओगे। अपने आप से उम्मीद बहुत ज़्यादा है। तो बुरा लगता है जब दिखाई देता है कि ध्यान कम है, एकाग्रता कम है और मंद बुद्धि हो।

तुम्हें ये अधिकार किसने दिया सोचने का कि तुम जैसे हो, इससे बेहतर हो सकते हो? पर हम सब के पास अपनी-अपनी एक बड़ी प्रकाशमई आत्म-छवि होती है। एक बड़ा रौशन पुतला होता है हमारे पास अपना। "वो देखो, पहाड़ के ऊपर किसकी मूर्ति खड़ी है। परेश महान! हेल परेश।”

अरे, तुम जैसे हो वैसे ही हो। तुम्हें निराशा इसलिए होती है क्योंकि तुम अपनी तुलना उस रौशन पुतले से करते हो। जैसे तुम्हारी कोई सौ-फीट ऊँची प्रतिमा, वो भी सुंदर और खूबसूरत, हैंडसम, बना कर टाँग दी गई हो। वो झूठी है न?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org