जन्म से पहले, मृत्यु के बाद

सुनहु राम स्वामी सन चल न चतुरी मोरि।

प्रभु अजहुँ मैं पापी अंतकाल गति तोरी।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांत: विचित्र लीला है। कहीं से आते नहीं हम और न कहीं को चले जाते हैं। मध्य में वो है जिसे हम कहते हैं कि ‘हम’ हैं। जन्म से पहले तुम कौन थे और कहाँ थे? और मौत के बाद तुम कौन होओगे और कहाँ होओगे? और बीच में तुमने खूब खेल रचाया है! बीच में तुम कहते हो, “मैं हूँ, मैं हूँ”। और ये अजीब-सी बात है।

जीवन हमारा कुछ ऐसा है कि जैसे ये कक्ष। इसमें एक द्वार इधर है, एक द्वार इधर है। (पहले द्वार की ओर इशारा करते हुए) उधर बाहर न कुछ है और (दूसरे द्वार की ओर इशारा करते हुए) इसके बाहर भी न कुछ है, बीच में सारा जीवन है। ये द्वार जन्म का है, ये द्वार मृत्यु का है। बाहर न कुछ है तो भीतर प्रवेश क्या करेगा?कुछ भी नहीं। जब बाहर कुछ नहीं है तो इस कक्ष में प्रवेश क्या करेगा? कुछ भी नहीं। और जब इधर (कक्ष के दूसरे द्वार की ओर इशारा करते हुए) से भी बाहर कुछ नहीं है, तो यहाँ से प्रस्थान क्या करेगा? कुछ भी नहीं।

अंदर कुछ आता नहीं, बाहर कुछ जाता नहीं, बीच में हम कहते हैं कि जीवन का मेला है। ये बड़ी अजीब बात है। ये मेला कैसे लग गया जब कोई भीतर आया ही नहीं और बाहर कोई गया ही नहीं? पर मेला हमारा शुरू भी होता है, मेला हमारा ख़त्म भी होता है। इस ताम-झाम को, इस आवागमन को ही हम जीवन का नाम दे देता हैं।

इधर भी वही है, उधर भी वही है, बीच में तुम्हारी मर्ज़ी है। उधर भी वही है, उधर भी वही है, बीच में तुम्हारी…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org