छूटता तब है जब पता भी न चले कि छूट गया

प्रश्नकर्ता: सर, मेरा नाम प्रशांत है। मैं आपसे मिलने नहीं आना चाहता था। पर आया हूँ। मेरा सवाल यही है।

आचार्य प्रशांत: प्रशांत ने कब चाहा है कि प्रशांत से मिले। पर प्रशांत की नियति है प्रशांत से मिलना।

मिले नहीं हो, मिले हुए थे।

प्र: नहीं समझा।

आचार्य: कभी सोये हो अपने प्रेमी के साथ? अँधेरे में? साथ होता है, आलिंगनबद्ध, ह्रदय से लगा हुआ। और तुम चैन से सो रहे होते हो उसके साथ, पूर्ण विश्राम में। पर क्या उस प्रेमपूर्ण शांति में चेतना होती है तुम्हें कि साथ में कौन है? ज़रा भी जानते हो कि तुम्हारे माथे पर किसके होंठ हैं और किसके वक्ष पर सर है तुम्हारा? नहीं जानते न? नहीं जानते क्योंकि पूरा विश्राम, पूरा भरोसा, पूरी निश्चिन्तता है। और कहीं गहराई में जानते भी हो क्योंकि कौन नहीं जानता उसे जिसमें वो समाया हुआ है। और ना जानते तो इतने चैन से सो कैसे पाते?

यही विडंबना है मन की। वो उसे जानकर भी नहीं जानता। और वो उसे भूलकर भी नहीं भूल पाता। जैसे कोई शिशु लोरी सुनते-सुनते उनींदा हो गया हो माँ के अंक में। अब लोरी सुन भी रहा है और नहीं भी। जग भी रहा है और नहीं भी। माँ को जान भी रहा है और नहीं भी।

जब तक चैन है, तब तक प्रेमी की, सत्य की चेतना नहीं हो सकती। पर यदि चैन टूटा, समाधि से छिटके, मधुरात्रि बीती, तो तुम जगते हो। अब शरीरभाव उदित होता है। अब सत्य, तुम्हारा प्रेमी, तुम्हें तुमसे अलग दिखेगा। देह है, रौशनी है, संसार है। अब प्रशांत, प्रशांत से अलग है। अब प्रशांत को लगेगा कि प्रशांत को पुनः पाना है, उससे पुनः मिलना है। कोशिश करेगा, हतप्रभ रह जाएगा।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org