चीन का मीडिया भारतीय जनतंत्र को कमज़ोरी क्यों मानता है?

जनतंत्र निश्चित रूप से एक बहुत अच्छी व्यवस्था है, लेकिन जहाँ कहीं भी जनतंत्र लागू किया जाए वहाँ ये आवश्यक होता है कि जनता भी दुनियादारी के मामलों में शिक्षत हो, साक्षर हो और अंदरूनी मामलों में चैतन्य हो, जाग्रत हो, आत्मचिंतन की और आत्मावलोकन की क्षमता रखती हो। ये बुनियादी शर्तें हैं जनतंत्र की सफलता के लिए।

दो शर्तें मैंने कहीं, जनता ऐसी होनी चाहिए जिसको बाहरी दुनिया की खोज-खबर, जानकारी हो और जिसको अपनी अंदरूनी दुनिया का भी हालचाल पता हो। लोग ऐसे होने चाहिए जिन्हें पता हो दुनिया में क्या चल रहा हो, और ये भी पता हो कि आंतरिक वृत्तियाँ कैसी हैं, ताकि वो ईर्ष्या, डर, लालच, सामुदायिकता, सम्प्रदायिकता — इन सब अंदरूनी वृत्तियों के प्रभाव में आकर निर्णय न कर दें। वो अपना मत ठीक तरह से स्थापित करें, अपने नेता भी ठीक चुनें, अपनी मांगें भी ठीक रखें। देश को किस दिशा ले जाना हैं, इसका निर्णय भी वो जागरूकता के साथ कर पाएं।

अब जनतंत्र तो स्थापित कर दिया गया है विश्व के एक बहुत बड़े हिस्से में, भारत भी उसमें शामिल है, और ये बहुत अच्छी ही बात है। लेकिन कमी यह रह गयी कि जनता की बाहरी दिशा की जागरूकता और अंदरूनी दिशा की चेतना बढ़ाने पर सही काम नहीं किया गया। नेताओं ने इस बात पर न जोर दिया, न व्यवस्था बनाई, न संसाधनों का व्यय किया कि लोग जनतंत्र के काबिल भी तो बन सकें। देखिए, अगर इंसान में अपना अच्छा-बुरा जानने की ताकत ही नहीं है तो वो देश का अच्छा-बुरा कैसे निर्धारित कर लेगा?

तो आदमी में ये ताकत होनी चाहिए कि वो मौलिक एक दृष्टि रख सके, तभी वो ‘जन’ कहला सकता है, तभी वो ‘व्यक्ति’ कहला सकता है। तभी उसका जो मत है या उसकी जो मांग है या उसका जो विचार है वो उसका व्यक्तिगत, मौलिक, असली, निजी, आत्मिक हुआ। अन्यथा तो प्रत्येक व्यक्ति जो जागरूक नहीं है, जो बेहोश सा ही है, जिसको कोई भीतरी-बाहरी शिक्षा मिली नहीं, वो सिर्फ भीतर प्रभावों की एक भीड़ है। वो व्यक्ति है ही नहीं, वो एक भीड़ है। फिर आपकी डेमोक्रेसी ‘मोबोक्रेसी’ हो जाती है।

मोबोक्रेसी का मतलब यही नहीं होता कि चालीस-पचास लोगों का झुंड आया और नारे लगाकर या जोर लगा करके या धौंस दिखा करके अपनी मांगें मनवा ले गया। मोबोक्रेसी यही नहीं है। मोबोक्रेसी यह भी है कि एक आदमी जो अकेला चलता दिख रहा है, वो वास्तव में अकेला है नहीं, उसके भीतर चालीस-पचास लोग घुसकर बैठे हुए हैं। उसके मन पर चालीस-पचास बाहरी प्रभाओं, ताकतों का कब्जा है। यह भी मोबोक्रेसी है। अब मुझे बताइये, उसका मत उसका हुआ कहाँ? उसका मत तो अभी जगा ही नहीं है। उसकी चेतना सो रही है। उसकी चेतना के साथ उसका मत भी सोया पड़ा है।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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