चिथड़ा-चिथड़ा मन

चिथड़ा-चिथड़ा मन

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मुझे कभी-कभी लगता है कि मैं दो हूँ — एक जो काम कर रहा है और दूसरा जो उस होते हुए काम को देख रहा है। एक जो बोल रहा है और जो दूसरा है, वो उस बोलते हुए को सुन रहा है। ये जो गतिविधि मेरे मन में चल रही है क्या यह यथार्थ है या सिर्फ़ मेरा वहम है? इस गतिविधि के फलस्वरूप अक्सर मैं ग़लत कार्य के विरोध करने में भी असमर्थ होता हूँ।

आचार्य प्रशांत: टाईम पास खूब मारते हो! दो हैं, एक कर रहा है, एक देख रहा है, इन दो का पता तुम्हें कैसे चला? दो हैं, एक कर रहा है, एक देख रहा है, तो ठीक है, एक कर रहा है, एक देख रहा है। इनका पता तुम्हें कैसे चला दोनों का? तो माने तीन हैं (सब हँसते हैं), एक कर रहा है, एक करने वाले को देख रहा है और एक तीसरा है जाँबाज़, जो करने वाले और देखने वाले, दोनों को देख रहा है। ये क्या है? क्या करोगे इसका?

एक कर रहा है, एक देख रहा है, ये सब मन के खेल हैं भाई। कहीं से कुछ साक्षी वगैरह पर तो नहीं पढ़ आये हो? इस तरह की बातें वहीं ज़्यादा करते हैं। फिर आकर बोलेंगे, ‘आच्छी! मुझे भी साक्षी हुआ।’ कैसे हुआ? ‘मेरा मन जो कुछ कर रहा होता है, मैं उसको देख रहा होता हूँ।’ मन जो कुछ कर रहा है, आप उसको देख रहे हैं। और ये जो देखने वाला है इसका आपको कैसे पता चला कि ये देख रहा है? अगर कोई देख रहा है तो आपको कैसे पता कि वो देख रहा है? इसका मतलब आप उसे देख रहे हैं। ऐसे फिर तीन ही नहीं होते, ऐसे फिर तीन हज़ार होते हैं, एक के पीछे एक, फिर उसके पीछे एक, फिर उसके पीछे एक।

कभी आमने-सामने दो आईने रखे हों, तो देखा है क्या होता है?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org