चार-पाँच औरतों से एक साथ प्यार!

क्या फर्क़ पड़ता है कि तुम एक के साथ हो या पाँच के साथ हो? तुम एक के साथ थे तो भी अतृप्त थे, पाँच के साथ थे, तो भी अतृप्त थे, तुम पाँच-हज़ार कर लो तुम तब भी खाली ही रहोगे। हम किसी के पास बाँटने के लिए थोड़े ही जाते हैं, हम तो लेने के लिए जाते हैं; नोचने, खसोटने, चूसने, निचोड़ने के लिए जाते हैं। और दूसरे से तुम्हें जो मिलना है वो कभी काफी पड़ना नहीं है। तो एक का शोषण कर लोगे फिर दूसरी के पास जाओगे या दूसरे के पास जाओगे, फिर तीसरे के पास जाओगे। पाओगे थोड़े ही; पूरा नहीं पड़ेगा। ये वैसी ही सी बात है जैसे आदमी नौकरियाँ बदलता है। ये वैसी ही सी बात है जैसे एक गाड़ी पूरी नहीं पड़ती तो आदमी चार गाड़ी करता है। चार गाड़ी में तृप्ति हो जाती है क्या?

एक तो समय ही ऐसा था जब तुम कितने बड़े आदमी हो, कितनी तुम्हारी प्रसिद्धि, ख्याति और उपलब्धि है, इसका पैमाना ही ये होता था कि तुम्हारे पास औरतें कितनी हैं। गिना जाता था कि तुम्हारे पास गाय कितनी हैं और तुम्हारे पास औरतें कितनी हैं। दो चीज़ें गिनी जाती थीं — पशुधन, स्त्रीधन। तो जैसे आदमी गाय इकट्ठा करता है, बंगला इकट्ठा करता है, सोना-चांदी इकट्ठा करता है वैसे ही औरतें भी इकट्ठा करता है। वहाँ कुछ मिल थोड़े ही जाता है। और औरतें भी अब यही करती हैं, वैसे ही वो आदमी इकट्ठा करती हैं; एक आदमी, दो आदमी, पाँच आदमी; जो ढूँढ रही हो वहाँ पाओगी थोड़े ही।

ऐसा नहीं कि वो एक आदमी में मिल जाएगा। ये नहीं कहा जा रहा है कि पाँच को छोड़ो, एक के हो जाओ। ना वो पाँच में मिलना है, ना वो एक में मिलना है। वो वहीं मिलना है जहाँ वो मिलना है। वहाँ जाओ तो मिलेगा। पति में परमेश्वर खोजोगी तो मिलेगा ही नहीं, और ऐसा भी होता है कि परमेश्वर मिल जाए तुम्हें तो तुम कहोगे — परमेश्वर चाहिए ही नहीं, मुझे तो पति चाहिए। ये और बड़ा अभाग है कि परमेश्वर को हटाओ पति लाओ।

प्र: आचार्य जी, लेकिन यदि पति-पत्नी एक-दूसरे में परमेश्वर को देखें, तो ये कल्याण का कारण बनना चाहिए न!

आचार्य: नहीं देखते न! पति के अंदर ईश्वर दिखने लग गया तो द्वंद हो जाता है। कहते हो — “तुम दो कैसे हो गए? तुम पति भर रहो, ईश्वर हो गए तो असुविधा हो जाती है। ईश्वर को बाहर छोड़ कर आया करो अंदर।“ वो बड़ी आदर्श स्त्रियाँ रही होंगी जिन्होंने चाहा था कि पति परमेश्वर जैसा हो। हम वैसे होते नहीं हैं।

प्र: आचार्य जी, कोई मान लो तृप्त है, पूर्ण है, तो वो भी तो अपना प्रेम कई औरतों के साथ अभिव्यक्त कर सकता है, तो क्या वो सही है?

आचार्य: तुम्हीं हो वो! जहाँ चारों तरफ आग लगी हुई है और तुम फायर-इंजन हो।

(सभी हँसते हैं)

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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