चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं

चाँद चाहिए या कुछ भी नहीं

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। अभी आप ज्ञान और कर्म के एकत्व के बारे में बता रहे थे कि दोनों में एकत्व देखना ही अध्यात्म का सूचक है। अब मैं जितना देख और समझ पा रहा हूँ कि ज्ञान से ही सही कर्म निकलता है और सही कर्म ज्ञान के बिना हो ही नहीं सकता और अगर ज्ञान सही कर्म में परिवर्तित नहीं हो रहा तो ज्ञान जीवन में उतरा ही नहीं।

अब अगर जीवन सही दिशा में बढ़ रहा है तो जो नेति-नेति है, वो स्वयं ही घटती है और जो सकाम कर्म है उनमें मूर्खता दिखनी शुरू हो जाती है। अब एक तो ये साइड है, दूसरा मुझे अपने अंदर ये दिखता है कि हमारी संरचना निष्काम कर्म करने के लिए तो हुई ही नहीं है…

आचार्य प्रशांत: ठीक।

प्र: तो ये निष्काम कर्म तो घट रहे हैं बस और अगर जीवन सही दिशा में बढ़ रहा है, ज्ञान और कर्म एक दूसरे के प्रपोरशन (अनुपात) में हैं, जैसे-जैसे ज्ञान बढ़ेगा वैसे-वैसे हमारे कर्म निष्काम होंगे तो फिर भक्ति को तो घटना होगा, वो अनुग्रह है।

आचार्य: नहीं, जैसे आप कह रहे हैं कि हमारी संरचना निष्काम कर्म के लिए नहीं हुई है वैसे ही हमारी संरचना ज्ञान के लिए भी नहीं हुई है न! तो ज्ञान कैसे बढ़ेगा?

चाहे निष्काम कर्म हो, चाहे ज्ञान हो, वो दोनों ही प्राकृतिक तौर पर हमारे साथ नहीं घटने हैं; उन दोनों के लिए ही चैतन्य प्रयास करना पड़ता है जिसको मैं चुनाव बोलता हूँ बार-बार। न ज्ञान ख़ुद आएगा, न प्रेम ख़ुद आएगा, न निष्कामता ख़ुद आएगी, बोध नहीं आएगा, सरलता-सहजता नहीं आएँगे।

जो कुछ भी जीवन में ऊँचा है वो अपनेआप कभी नहीं आएगा, प्राकृतिक तौर पर नहीं आएगा। उसको तो बड़े श्रम से, साधना से, संकल्प से खींचकर जीवन में लाना होता है। हाँ, उनमें से किसी एक को आप ले आएँ जीवन में तो बाकी सब स्वतः घटित होने लगते हैं।

अब प्रेम हमेशा मूल्य माँगता है, आप जान लगा करके वो मूल्य चुकाएँ तो फिर आप पाएँगे कि उसी प्रेम ने आपको निरहंकार भी कर रखा है, उसी ने आपमें अनासक्ति ला दी है, मोह कम कर दिया है, निर्भय बना दिया है — फिर वो और बहुत सारी चीज़ें हैं जो प्रेम के साथ-साथ अपनेआप जीवन में आ जाएँगी, लेकिन मूल्य तो किसी एक मोर्चे पर पूरा चुकाना ही पड़ेगा। कोई एक मोर्चा हो कम-से-कम जहाँ आप पूरा मूल्य चुका रहे हों, फिर बाकियों पर फ़तह अपनेआप होने लगती है।

प्र: अब मैं ये देख पा रहा हूँ कि ये सबकुछ घट तो मेरे साथ ही रहा है लेकिन इसमें मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ और एक पहलू ये है कि बड़े लोगों से आए हो, उनमें उठना-बैठना है तो जो कर्म है जिसमें हम निचले तल पर उतर जाते हैं, वो नहीं करना। तो ये दो साइड मैं अपनी देख पाता हूँ।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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