घर बैठकर रोटी और बिस्तर तोड़ने की आदत
प्रश्न: आचार्य जी, जब मैं अकेला लेटा रहता हूँ, तो मैं अपने बारे में चिंतन कर पाता हूँ, कि — “मैं ऐसे क्यों जी रहा हूँ। मैं अपने ऐसे कर्मों को छोड़ क्यों नहीं देता।” लेकिन जैसे ही परिवार के माहौल में या दोस्तों के बीच आता हूँ, तो सब भूल जाता हूँ ।
आचार्य प्रशांत: तो क्यों आ जाते हो दोस्तों में?
प्रश्नकर्ता १: बचपन से ही।
आचार्य प्रशांत: अभी बच्चे हो?
प्रश्नकर्ता १: कठिन लगता है।
आचार्य प्रशांत: तो मत छोड़ो।
प्रश्नकर्ता १: उससे निकल नहीं पा रहा हूँ।
आचार्य प्रशांत: कठिन है इसीलिए नहीं निकल पा रहे हो। मत निकलो। जीवन में आसान तो एक ही काम है — खाओ, पियो, मस्त पड़े रहो। घर में भैंस बंधी देखी है? गले में पड़ी हो रस्सी, दूध दो, चारा खाओ, जुगाली करो। पड़े रहो। क्यों भई, कठिनाई कौन झेले?
तुमसे किसने कहा है कि जिन लोगों के बीच जीवन और मति दोनों भ्रष्ट हो जाते हैं, उनकी ओर बार-बार जाओ? तुमसे किसने कहा ऐसे माहौल में रहो, जहाँ तुम्हारी चेतना का ह्रास हो जाता है? क्यों जाते हो ऐसे लोगों के पास जो तुम्हारा चित्त कलुषित कर देते हैं?
और वहीं रहना है, तो यहाँ क्यों आए हो?
ये दोनों तरफ़ की बात नहीं चलेगी।
मैदान में जो उतरे उसे चुनना पड़ता है कि तलवार भांजनी है या नहीं।
मैदान में उतर भी आओ, और तलवार भी न चलाओ, तो बड़ी बुरी मौत…