घर जल रहा हो, तो एकांत ध्यान करना पाप है
प्रश्नकर्ताः आचार्य जी, मेरा मन हमेशा के लिए किसी एकांत जगह पर जाकर ध्यान साधना और भक्ति में डूबने को करता है लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांतः देखो बेटा, अभी थोड़ी पहले ही मैं कह रहा था कि जब घर में आग लगी हो, तब एकांत में बैठकर ध्यान करना मूर्खता ही नहीं पाप है। और अभी घर में आग लगी हुई है। आज के युग में एक ही तरह का ध्यान संभव है और सम्यक् है और वो ध्यान है अनवरत, अथक, अगाध कर्म। जब समय तुमसे अथक कर्म की उम्मीद कर रहा हो, उस वक्त तुम कहो कि मैं एकांत में बैठकर के मौन ध्यान लगा रहा हूँ तो मेरी नजर में ये गुनाह है। शांति यदि ध्येय है तो कर्म ध्यान है।
और जब अशांति दुनिया पर छा चुकी हो तब शांति को ध्येय बनाते हुए तुम्हें कर्म करना ही पड़ेगा। जीवन तुमसे माँग कर रहा है कि तुम रणक्षेत्र में कूद जाओ, जूझ जाओ, अर्जुन हो जाओ।
और अर्जुन कृष्ण से कहे कि, “नहीं योगीराज, लड़ने की जगह मैं योगासन करूँगा” तो ये मूर्खता है। इस समर में शांति सिर्फ युद्ध के बीचों — बीच ही संभव है। कमरा बंद करके और आँखें बंद करके नहीं। आँखें तुमने बहुत बंद कर ली अब खोल लो।
समझ में आ रही है बात?
पचास बंधनों में तो उलझे हुए हो। बेड़ियाँ पहन कर के बैठे हो। ये कौन-सा ध्यान है जो बेड़ियाँ भुलाने के लिए किया जा रहा है? बेड़ियाँ भुलाने से बेड़ियाँ कट नहीं जाएँगी। तुम्हें मौन नहीं चीत्कार चाहिए, श्रम चाहिए, पराक्रम चाहिए।