ग्लानि और हीन भावना
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प्रश्न: आचार्य जी, ग्लानि भाव को कैसे दूर करें?
आचार्य प्रशांत: “साइकिल बहुत तेज़ दौड़ाई, बहुत तेज़ दौड़ाई, पर सौ की गति नहीं पाई। अब बड़ी ग्लानि हो रही है कि ज़रूर मैंने ठीक से श्रम नहीं किया।”
या — “ज़रूर मेरी साइकिल में कुछ कमी थी, सौ की गति नहीं आई।”
मूल भूल क्या है? तुमने श्रम नहीं किया, या तुम साइकिल पर सवार हो? मूल भूल ये है कि तुमने श्रम नहीं किया, या मूल भूल ये है कि तुम साइकिल से सौ की गति की अपेक्षा रख रही हो?
श्रोता: साइकिल से सौ की गति की अपेक्षा रखना।
आचार्य प्रशांत जी: लेकिन साइकिल से मोह है। तो तुम ये मानने को तैयार नहीं होओगे कि — मैं जो हूँ, और ये जो साइकिल है, ये सौ तक कभी पहुँच ही नहीं सकते।
सही भूल न माननी पड़े, इसीलिए एक नकली भूल का निर्माण किया जाता है। उस नकली भूल का नाम है — ग्लानि, कि — “साइकिल तो ठीक ही है, थोड़ी सी ताक़त और लगाते तो सौ की गति आ ही जाती।” जानते हो न ग्लानि क्या बोलती है? ग्लानि बोलती है — “हम तो बहुत अच्छे हैं, बस भूल कर बैठे।”
तुम भूल नहीं कर बैठे।
तुम जो कर रहे हो, तुम वैसे ही हो।
ग्लानि क्या दिखा रहे हो?
जैसे कि तुम दौड़ो बहुत ज़ोर से, और तुम्हें ग्लानि उठे कि तुम उड़ क्यों नहीं पाए। कितनी भी ज़ोर से दौड़ लो, तुम उड़ थोड़े ही जाओगे। तुम ऐसे ही हो।
तुमसे वही होता है, जैसे तुम हो।
वो होना अपरिहार्य था। अब पछता क्यों रहे हो?
पछताकर के तुम अपने लिए एक धोखे का निर्माण कर रहे हो।
क्या कहता है वो धोखा?
“हम बुरे हैं नहीं, हमसे बुराई हो गई।”
“हमसे दुर्घटना हो गई।”
“संयोग हो गया।”
“हम लापरवाह हैं नहीं, हमसे लापरवाही हो गई। वैसे तो हम बहुत अच्छे आदमी हैं, बस आज लापरवाही हो गई। हम शांत हैं, बस दुर्घटनावश हिंसा हो गई हमसे। हम हिंसक हैं नहीं, हमसे हिंसा हो गई।”
तो अब ग्लानि उठेगी कि — “मुझ जैसे शांत व्यक्ति से हिंसा हो कैसे गई?”
तुम मूल दोष को छिपाने के लिए, एक छोटे दोष का आविष्कार कर रहे हो। मूल दोष ये नहीं है कि हिंसा कर दी, मूल दोष ये है कि तुम हिंसक हो ही। तुम्हारा हिंसक होना छुपा रह जाता था, आज…