ग्रन्थों के साथ सत्संग हो सकता है, तर्क या बहस नहीं

प्रश्न: सर, हम जब भी कोई फोटोग्राफ खींचते हैं तो वो फोटोग्राफ एक हिस्से की होगी, वो पूरे की नहीं हो सकती। एक हिस्से ही आएगा, पूरे का नहीं आ सकता। जब मुझे दिख ही एक हिस्सा रहा है तब मैं उसी चीज़ के बारे में बताऊँगा, बाकी का मुझे नहीं दिखा रहा है, उसका मुझे कुछ नहीं पता है।

वक्ता: बिलकुल। बिलकुल। इसका मतलब ये भी है कि हम जो भी संवाद करते हैं, इनको बहुत दूसरे तरीके से सुनना पड़ेगा। क्योंकि हम जितनी भी बातें कर रहे हैं उनको काटना बड़ा आसान हो जाएगा। हम बातें कर रहे हैं ‘पूर्ण’ की, और प्रयोग कर रहे हैं ‘शब्द’। तो निश्चित रूप से हम जितनी भी बातें कर रहे हैं वो क्या हैं? अधूरी हैं। और अगर कोई उसको काटने पर उतारू हो तो काट सकता है। अभी यहाँ पर एक सूक्ष्म बुद्धि का आदमी बैठा दिया जाए जिसने तय ही कर रखा हो कि कुतर्क करना है, तो वो जीत जाएगा। वो तय कर के आया है आज सब कुछ काट दूंगा, आज मैदान मार लूँगा, तो वो मैदान मार लेगा।

क्योंकि हम जो बातें कर रहे हैं, वो बातें वास्तव में पूरी हैं ही नहीं। उनमें सब में छेद है। उनमें सब में कुछ ना कुछ कमी है, या अधूरा है या विरोधाभासी है। तुम्हें काटा जा सकता है, बिलकुल काटा जा सकता है। मैंने आपको वो बात लिख कर भेजी थी, ‘दोज़ आई लव, आई पनिश (जिनसे मैं प्रेम करता हूँ, उन्हें मैं सज़ा देता हूँ )’, कितनी अधूरी बात है। कोई काटने पर आए तो बिलकुल काट सकता है। वो कह सकता है, “न, दोज़ आई लव, आई रिवार्ड (नहीं, जिनसे मैं प्यार करता हूँ, उन्हें मैं सराहता हूँ)”, और उसकी बात बिलकुल ठीक होगी। वो कहेगा आपने ये बात गलत लिखी है और वो सिद्ध कर देगा बात गलत है, वो बिलकुल सिद्ध कर देगा।

इसीलिए इनको सुनने का तरीका बिलकुल अलग होता है। इनको सुनने का तरीका होता है कि कोई तरीका…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org