ग्रंथों में नारियों को सम्मान क्यों नहीं देते?

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।

हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ९, श्लोक ३२

प्रश्नकर्ता: इसमें मेरे दो प्रश्न हैं। पहला तो यह कि आखिर हर ऋषि कहीं-न-कहीं स्त्री को ही निम्न कोटि में डाल करके बात करता है। दूसरा — कई बार आपने समझाया है कि यह मन की ही दो स्थितियों की बात है, अगर ऐसा भी है तो इस स्थिति में उपमा के तौर पर स्त्री को ही इतना नीचे के तल पर रखकर बात क्यों की जाती है? और अगर ऐसा कुछ है वास्तव में, तो स्त्री होने के नाते ध्यान रखने वाली चीज़ क्या है?

आचार्य प्रशांत: देखो, समझना पड़ेगा। जहाँ से कृष्ण बात कर रहे हैं, वहाँ से देखने पर तो जीव ही मिथ्या है, तो काहे की स्त्री और कौन सा पुरुष। जहाँ से कृष्ण देख रहे हैं, वहाँ से देखने पर तो जीव ही नहीं है, तो स्त्री कौन, पुरुष कौन। जिंदा कौन और मुर्दा कौन।

अर्जुन को कह रहे हैं कि ये जो ज़िंदा हैं, वो भी मुर्दा हैं और जो मुर्दा हैं, वो कभी ज़िंदा थे। वह बिल्कुल एकदम घबराया हुआ है कि कुछ है या नहीं है। मरे हुए जो हैं, वो कभी मरे नहीं, जो जिंदा है, वो पैदा हुए नहीं। वो तो जीव की ही सत्ता बताए दे रहे हैं कि मिथ्या है। अब उसमें क्या परेशान होना कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है।

लेकिन सुनने वाला कौन है? अर्जुन है। अब इन साहब पर ध्यान देते हैं। ये वो है जो पहले अध्याय में बता रहे थे कि देखिए, अगर हमने लड़ाई करी तो सब क्षत्रिय पुरुष मर जाएँगे और फिर हमारी औरतें…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org