गॉसिप — व्यर्थ चर्चा- मेरे जीवन का हिस्सा क्यों?

तुम मुझे इतना बता दो कि तुम जब गॉसिप करते हो, तो अपनी समझ से करते हो, अपनी इंटेलिजेंस से करते हो, अपने होश से करते हो? या तुम्हारी प्रोग्रामिंग ही है गॉसिप करने की? ठीक- ठीक बताना। ईमानदारी से देखो, क्योंकि अगर तुम्हारी प्रोग्रामिंग नहीं है, तो तुम्हारे पास ये विकल्प होना चाहिए कि- “आओ दोस्तों आज दस लोग बैठेंगे, और आज मौन बैठेंगे, उसमें भी बड़ा आनन्द है।”

वो विकल्प तुम्हारे पास क्या है भी? अगर वो विकल्प ही नहीं है तुम्हारे पास, तो तुम्हारी ये जो पूरी गॉसिप है, ये सिर्फ़ तुम्हारे यान्त्रिक होने का सबूत है। तुम ज़िंदा ही नहीं हो, जब तुम गॉसिप कर रहे हो। लाइफ़ का सवाल ही नहीं पैदा होता। तुमने कहा, “पार्ट ऑफ़ लाइफ,” लाइफ़ है कहाँ? वो वैसी ही लाइफ़ है, जैसी इस कैमरे की, शक्कर की, चाय की, पंखे की, ए.सी. की। इन्हें क्या हक़ है ये कहने का कि — “हम ज़िंदा हैं”?

ज़िंदा तो वो कि जिसके पास होश हो।

ज़िंदा तुम तभी जब तुम होश में हो।

जहाँ होश नहीं, वहाँ ज़िन्दगी कैसी?

हमारे साथ त्रासदी ये हो जाती है कि हम पूरी क्षमता रखते हैं ज़िन्दगी होश में बिताने की, उसके बाद भी बेहोश रहते हैं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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