गुस्से में चीखने-चिल्लाने की समस्या

प्रश्न: आचार्य जी, मैंने बचपन से ही देखा है कि यदि कोई लड़ाई हो जाती है, तो लोग चिल्लाकर बात करते हैं, और साबित करने में लग जाते हैं कि हम सही हैं। घर में अगर मेरी भी किसी से लड़ाई हो जाती है, तो मैं भी वैसी ही हो जाती हूँ। पर बाद में मुझे एहसास होता है कि मैं सही नहीं कर रही हूँ। मगर फ़िर भी यह आदत नहीं जा रही है। क्या करूँ? कुछ समझ नहीं आता ।

आचार्य प्रशांत: जहाँ से शुरू कर रहे हो, वो जगह ही ठीक नहीं है। बात यह नहीं है कि गुस्सा ग़लत नहीं है, पर हमारे व्यक्त करने का तरीका ग़लत है — यहाँ से शुरू किया है तुमने। अभिव्यक्ति की बात नहीं है। बात है कि — कौन है जिसे ग़ुस्सा आ रहा है? किस बात पर ग़ुस्सा आ रहा है? तुमने तो यह कह दिया कि बीमारी बुरी नहीं है, बीमारी का प्रकट होना बुरा है।

“ग़ुस्सा बुरा नहीं है, चिल्लाना बुरा है।”

“अच्छा! चिल्लाएँगे नहीं। बस तुम्हारा एक लाख रुपया गायब कर देंगे, बिना चिल्लाए। गुस्से में हैं!”

यह तो ठीक होगा फ़िर। क्यों? उसमें कोई अभद्रता नहीं, बिलकुल शालीन तरीके से। नमस्कार करके!

गुस्सा माने — कामना पूरी नहीं हुई। भीतर से ऊर्जा उठी है। वो कह रही है, “कामना पूरी करनी है। मैं ज़ोर लगाऊँगी।”

गुस्सा माने — ज़ोर लगाना। “मैं जो चाहता हूँ, वो हो नहीं रहा, तो चाहत पूरी करने के लिए मैं ज़ोर लगाऊँगा।” इसका नाम होता है — गुस्सा। क्या चाह रहे थे? ज़ोर लगाना आवश्यक है? सुसंस्कृत होकर, सभ्य होकर, ज़ोर लगाना आवश्यक है? या सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि चाह ही…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org