गुलामी चुभ ही नहीं रही, तो आज़ादी लेकर क्या करोगे?

बाहरी व्यवस्था सिर्फ़ बाहरी थोड़ी है, अगर व्यवस्था की उपेक्षा करने के पीछे तुम्हारी नियत ये है कि तुम बंधना नहीं चाहते किसी ऐसी चीज़ में जो निजी नहीं है, जो तुम्हारी आत्मिक नहीं है तो जो चीज़ आत्मिक नहीं है वो सिर्फ़ बाहर की व्यवस्था में ही थोड़े ही बैठी है, वो भीतर भी तो प्रवेश कर गई है। जिसको तुम भीतरी बोलते हो वो भी बाहरी है।

ये तुमने बड़ा भ्रम पाल रखा है कि जो बाहर से तुम पर शासन करे या आदेश चलाए सिर्फ़ वही बाहरी है। अपनी आतंरिक व्यवस्था को तो तुमने बिल्कुल ही अपना मान लिया, आंतरिक को आत्मिक बना मारा तुमने जबकि वो आंतरिक भर है, आत्मिक नहीं है। अध्यात्म का एक बुनियादी सूत्र चुक गए हो तुम। बाहरी और आतंरिक, दोनों में से आत्मिक कोई नहीं होता। जो बाहरी है, उससे ज़्यादा बाहरी और ज़्यादा खतरनाक वो होता है जो अन्धरुनी लगता है। ये जो भीतर वाला है ना जिसको ‘मैं’ बोलते हो, ये बाहरी से ज़्यादा बाहरी है और इससे ज़्यादा घातक कोई नहीं है तुम्हारे लिए इसलिए बार-बार बोलता हूँ कि बाहर से तो बाद में बचना पहले तुम खुद से बचो, अपने आप से बचो, जो तुम्हारे भीतर बैठा है उससे बचो, वही दुश्मन है तुम्हारा, वही ज़हर है तुम्हारा जो तुम्हारे भीतर बैठा है तुम्हारी बुद्धि बनके, जो तुम्हारे भीतर बैठा है ‘मैं’ बनकर, वो जो भीतर बैठा है तुम्हारा सलाहकार और शुभचिंतक बनकर, वो तुम्हारा सबसे बड़ा बैरी है। पर हम उसको बैरी कहाँ मानते है, हम तो कहते है ये तो ‘मैं’ हूँ।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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