गुरु से सीखें या जीवन के अनुभवों से?
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इदमिदमिति तृष्णयाऽभिभूतं जनमनवाप्तधनं विषीदमानम् ।
निपुणमनुनिशाम्य तत्त्वबुद्ध्या व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ।।
जो ये मिले, वो मिले — इस तरह तृष्णा से दबे रहते हैं और धन न मिलने के कारण निरंतर विषाद करते हैं, ऐसे लोगों की दशा अच्छी तरह देख कर तात्विक बुद्धि से संपन्न हुआ मैं पवित्र भाव से इस आजगर-व्रत का आचरण करता हूँ।
(अजगर गीता, श्लोक 28)
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अपगतभयरागमोहदर्पो धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः ।
उपगतफलभोगिनो निशाम्य व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥
मेरे भय, राग, मोह और अभिमान नष्ट हो गए हैं। मैं धृत, मति और बुद्धि से संपन्न एवं पूर्णतया शांत हूँ और प्रारब्धवश स्वतः अपने समीप आई हुई वस्तु का ही उपभोग करने वालों को देखकर मैं पवित्र भाव से इस आजगर-व्रत का आचरण करता हूँ।
(अजगर गीता, श्लोक 31)
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अपगतमसुखार्थमीहनार्थै रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम् ।
तृपितमनियतं मनो नियन्तुं व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥
जिनका परिणाम दु:ख है, उन इच्छा के विषयभूत समस्त पदार्थों से जो विरक्त हो चुका है, ऐसे आत्मनिष्ठ महापुरुष को देखकर मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। अतः मैं तृष्णा से व्याकुल और असंयत मन को वश में करने के लिए पवित्र भाव से इस आजगर-व्रत चरण करता हूँ।
(अजगर गीता, श्लोक 33)
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प्रश्न: ब्राह्मण ने दूसरों को देखकर सीख ली है, परंतु मेरा मानना है कि यदि स्वयं अनुभव करें तो बेहतर सीख पाएँगे। क्या करें? संतों को देखकर जीवन में बदलाव किया जाए, या अंतस से बदलाव होना बेहतर है?
आचार्य प्रशांत: तुम क्या करोगे? अपनी आँखें मूँद लोगे? अगर तुम्हारे सामने ज़िंदगी संतों -ज्ञानियों को लाती है, तो तुम ज़बरदस्ती उनकी तरफ़ पीठ कर लोगे? सीखते सब जीवन से ही हैं। संतों से, ज्ञानियों से, गुरुओं से भी तुम्हारा जो साक्षात्कार होता है, वो जीवन का ही तो हिस्सा है।
तुम अजीब बात करते हो। तुम कहते हो, “नहीं, मैं ज्ञानियों से नहीं सीखूँगा, मैं जीवन से सीखूँगा।” मतलब क्या है इस बात का? जीवन तुम्हारा साक्षात्कार करा देता है, सामना करा देता है शराबियों से, कबाबियों से, उनका प्रभाव तुम अपने पर पड़ने देते हो। तब तो तुम नहीं कहते कि, “मैं इनका प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने दूँगा।” ठीक? माने शराबी-कबाबी सब मिल जाएँ तुमको तो इनको तुम जीवन का प्राकृतिक हिस्सा मानते हो, कहते हो, “ये तो जीवन है। मैं जीवन जी रहा हूँ।” और…