गुरु से सीखें या जीवन के अनुभवों से
प्रश्नकर्ता: ब्राह्मण ने दूसरों को देखकर सीख ली है परंतु मेरा मानना है कि यदि स्वयं अनुभव करें तो बेहतर सीख पाएंगे। क्या करें? संतो को देखकर जीवन में बदलाव किया जाए या अंदर से बदलाव होना बेहतर है?
आचार्य प्रशांत: अगर तुम्हारे सामने ज़िन्दगी संतो-ज्ञानियों को लाती है तो तुम ज़बरदस्ती उनकी तरफ पीठ कर लोगे? सीखते सब जीवन से ही हैं। संतों से, ज्ञानियों से, गुरुओं से भी तुम्हारा जो साक्षात्कार होता है वो जीवन का ही तो हिस्सा है।
तुम अजीब बात करते हो, तुम कहते हो, “नहीं, मैं ज्ञानियों से नहीं सीखूंगा, मैं जीवन से सीखूंगा”। मतलब क्या है इस बात का? जीवन तुम्हारा साक्षात्कार करा देता है, सामना करा देता है शराबियों-कबाबियों से, उनका प्रभाव तुम अपने पर पड़ने देते हो, तब तो तुम नहीं कहते कि, “मैं इनका प्रभाव अपने ऊपर नहीं पड़ने दूँगा”। माने शराबी-कबाबी सब मिल जाएँ तुमको तो इनको तुम जीवन का प्राकृतिक हिस्सा मानते हो, कहते हो, “ये तो जीवन है। मैं जीवन जी रहा हूँ।” और वही जीवनयात्रा तुम्हारी तुमको किसी गुरु के, किसी ज्ञानी के पास ले जाती है, तो तुम कहते हो, “नहीं, गुरु से नहीं, जीवन से सीखूंगा”। ये बड़ी अजीब बात है।
अरे बाबा, वो गुरु भी तो तुम्हें जीवन ने ही मुहैया कराया है या वो जीवन से बाहर का है? तुम्हें गुरु क्या किसी और अंतरिक्ष में मिला है या मरने के बाद मिला है? जी ही रहे थे, यूँ ही कोई मिल गया सरे राह चलते-चलते। गुरु वैसे भी कौन सा तुमने अपनी बुद्धि से चुना है। ये तो तुम्हारे साथ संयोग हो गया, एक तरह की दुर्घटना हो गई कि तुम गुरु के पल्ले…