गुरु बिनु होत नहीं उजियारी

चकमक पत्थर रहे एक संगा, नहीं उठे चिंगारी।
बिनु दया संयोग गुरु बिनु, होत नहीं उजियारी।।

~ कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: आग तेरे ही भीतर होगी पर जब तक गुरु का संयोग नहीं मिलेगा, गुरु से जुड़ेगा नहीं, तब तक चिंगारी नहीं उठेगी।

दोनों बातें अपनी-अपनी जगह बिल्कुल ठीक हैं। पहली बात, गुरु बाहर से लाकर तुझे चिंगारी नहीं दे रहा है; सत्य तो तेरे ही भीतर था, तू ही सत्य है। कबीर साहब ने बिल्कुल ठीक कहा था — “ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग”। तो बात तो कबीर साहब ने बिल्कुल ठीक कही थी पर बात किसके कानों में पड़ गई? बात पड़ गई अहंकार के कानों में। ‘अहंकारी चकमक’ ने क्या सुना? “मुझमें ही तो है न! आग मुझमें ही है!” अब फँस गया। अब दुःखी है कि अँधेरा-अँधेरा सा क्यों है, उजियारी क्यों नहीं हो रही।

तो फिर आगे कबीर साहब का क्या सन्देश है चकमक को? “चकमक पत्थर रहे एक संगा, नहीं उठे चिंगारी,” तू जब तक गुरु के स्पर्श में नहीं आएगा…और स्पर्श भी कैसा? गुरु से रगड़ा खाना पड़ेगा। जब तक रगड़ा नहीं खाएगा, चिंगारी नहीं उठेगी, और तू अँधेरा-ही-अँधेरा रहेगा।

तो बड़े साधारण-से प्रतीक के साथ, बड़ी गहरी बात कह दी है कबीर साहब ने। पहली, सत्य तेरे ही भीतर है, इसमें कोई दो राय नहीं। दूसरी, वो सत्य उद्भूत नहीं होगा, प्रकट नहीं होगा, जब तक गुरु का संयोग नहीं होगा। कबीर साहब का यही है कि कृष्णमूर्ति और ओशो, दोनों ही उनमें समाए हुए हैं।

जब कहते हैं:

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org