गुरु चाहिए ही क्यों? चेतना के दो तल

गुरु और शिष्य वास्तव में दोनों तुम्हारे अंदर की इकाईयाँ हैं। वो ही बाहर स्थूल रूप से तमाम तरीकों से दिखाई पड़ती हैं। जो तुम्हारा मन है, ये कुछ बातें समझता नहीं है, थोड़ा अनाड़ी है। मन को हम कह देते हैं शिष्य या चेला। मन सीखने के लिए आतुर है।

मन सीखने के लिए जिसके पास जाना चाहता है उसका नाम है गुरु। आत्मा हुई गुरु। मन की शांति का ही नाम आत्मा है। मन को आत्मा चाहिए। आत्मा का ही दूसरा नाम हुआ गुरु।

मन होकर देखोगे तो कहोगे कि मैं छटपटा रहा हूँ कि मुझे गुरु मिल जाए। आत्मा होकर देखोगे तो समझोगे कि आत्मा का ही तो आशीर्वाद है कि मन को आत्मा को पाने की छटपटाहट उठ रही है। जिस भी तरीके से देखना चाहो, देख सकते हो। तुम ये भी कह सकते हो कि मन प्यासा रहता है शान्ति के लिए और ये भी कह सकते हो कि शान्ति खींच लेती है मन को। इन दोनों वाक्यों में बस अंतर इतना है कि तुम दोनों इकाईयों में से किसको कर्ता देख रहे हो? किस इकाई को तुम सक्रिय देख रहे हो? जब तुम कहते हो मन व्याकुल है शान्ति के लिए, तो यहाँ तुमने कर्ता किसको बनाया? मन को। मन जा रहा है शान्ति की ओर। जब तुम कहते हो कि शान्ति बुला रही है मन को, तब तुमने कर्ता बना दिया शान्ति को।

वास्तव में ये दोनों अलग-अलग हैं ही नहीं। अंततः दोनों में से एक ही सच्चा है और वो है शान्ति। सच्चाई तो एक है, दो सच्चाइयाँ तो होती नहीं हैं। यदि तुम कहोगे कि दो सच्चाइयाँ हैं, एक का नाम मन है और दूसरी का नाम आत्मा है। ऐसा तो होता नहीं है, तो यदि तुमको बात को बिल्कुल सच्चाई के साथ कहना है तो तुम्हें यही कहना पड़ेगा कि चल हट…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org