गीता-ज्ञान कॉर्पोरेट मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए है?
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प्रश्नकर्ता: आज बहुत सारी ऐसी संस्थाएँ और मेनेजमेंट गुरु पनप आए हैं जो श्रीमद् भागवतगीता को मैनेजमेंट मानें प्रबंधन सीखने की पुस्तक बताते हैं। मैं एमबीए कर रहा हूँ दिल्ली से तो मैंने भी मेनेजमेंट सीखने के उद्देश्य से गीता दो बार पढ़ी पर कुछ फायदा लगा नहीं, कुछ समझाएँ कि हो क्या रहा है।
आचार्य प्रशांत: दो बहुत अलग-अलग उद्देश्य होते हैं व्यक्ति के। व्यक्ति वो जो निराशा पाता है, असफलता पाता है, जिसके सामने कष्ट हैं, ठोकरे हैं, जिसके सामने कोई-न-कोई समस्या खड़ी है, उसका नाम है व्यक्ति।
अब ये व्यक्ति या तो कह सकता है कि “मुझे जो पाना है वो पाना ही है। मैं जो मानता हूँ वो ठीक ही है। मेरी जैसी चाल है वो उचित ही है और मुझे तो बस थोड़ा सहारा चाहिए या निर्देश चाहिए कि मैं किसी तरह अपने द्वारा निर्धारित अपनी मंज़िल के अपने चुने हुए रास्ते में आ रही चुनौतियों से कैसे निपट सकूँ।” ये एक तरीके का मन है, जीवन है, दृष्टि है।
“मंज़िल भी मैंने चुनी, रास्ता भी मैंने चुना। अब जो मंज़िल चुनी है उसका पाना भी बहुत लाभ नहीं दे रहा, न पाना दुःख ज़रूर दे रहा है। जो रास्ता चुना है उस पर ठोकरें लगती हैं, खून बहता है। तो मेरे सामने समस्याएँ हैं, इन समस्याओं का कोई समाधान मिले।” ऐसा व्यक्ति भी जा सकता है गीता के पास, किसी भी ग्रंथ के पास, किसी भी तरह के ऐसे स्रोत के पास जो बोध जागृत करने के लिए रचित है। ये एक तरीका है जीने का।
और दूसरी दृष्टि होती है जीवन की जो कहती है कि “ये मंज़िल मैंने तय करी है। ये रास्ता मैंने तय करा है। क्या वाकई मैं इस लायक हूँ कि अपने-आप पर इतना भरोसा कर सकूँ? क्या वाकई मेरे निर्णय सब होश में हो रहे हैं? और अगर मंज़िलें और रास्ते चुनने का निर्णय ही सर्वप्रथम होश में नहीं हुआ है तो क्या फायदा रास्ते को सुविधाजनक बनाने का, छोटा रास्ता खोजने का, रास्ते को और रफ्तार से तय करने के उपाए करने का? अरे भाई मंज़िल भी ग़लत क्योंकि मैं ग़लत; मंज़िल का निर्धाता और रास्ता भी ग़लत क्योंकि मैं ग़लत, रास्ते का निर्धाता। ऐसे में और ज़्यादा कुशलता अर्जित करके क्या होगा?” ये दूसरी दृष्टि है जैसा हमने कहा। पहली दृष्टि आसान पड़ती है क्योंकि उसमें तकलीफें, कष्ट और असफलताएँ भले ही आती हों लेकिन एक सुकून रहता है, बड़ा केंद्रिय सुकून — मैं ठीक हूँ, मैं अपने अनुसार अपने हिसाब से जी रहा हूँ, अपना मालिक हूँ।
दूसरा रास्ता मंज़िल तक पहुँचा देता है लेकिन सर को झुकवा कर। आपको जो वास्तव में चाहिए आपको वो दे देता है लेकिन आपसे कुछ मनवा कर। पहले आपको मानना पड़ता है कि आप जो हो, आप जिन तरीकों से चल रहे हो वो सब पूरा-का-पूरा ही झूठ है, ग़लत, भ्रम, मिथ्या मात्र है। अब मिलती हो बड़ी सहुलियत, हो जाता…