गीता-ज्ञान कॉर्पोरेट मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए है?
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दो बहुत अलग-अलग उद्देश्य होते हैं व्यक्ति के, व्यक्ति वो जो निराशा पाता है, असफलता पाता है, जिसके सामने कष्ट है, जिसके सामने कोई न कोई समस्या खड़ी है, उसका नाम है व्यक्ति। अब ये व्यक्ति या तो कह सकता है कि मुझे जो पाना है, वो पाना ही है, मैं जो मानता हूँ वो ठीक ही है, मेरी जैसी चाल है वो उचित ही है और मुझे तो बस थोड़ा सहारा चाहिए कि मैं किसी तरह अपने द्वारा निर्धारित, अपनी मंज़िल के रास्ते में आ रहे चुनौतियों से कैसे निपट सकूँ।
दूसरी दृष्टि होती है जीवन की, जो कहती है कि मंज़िल मैंने तय करी है, ये रास्ता मैंने तय करा है, क्या वाकई मैं इस लायक हूँ कि अपने आप पर इतना भरोसा कर सकूँ, क्या वाकई मेरे निर्णय सब होश में हो रहे है? और अगर मंज़िलें और रास्ते चुनने का निर्णय ही स्वर्प्रथम होश में नहीं हुआ है तो क्या फायदा रास्ते को सुविधाजनक बनाने का, छोटा रास्ता खोजने का, रास्ते को और रफ़्तार से तय करने के उपाय करने का?
पहली दृष्टि आसान पड़ती है क्योंकि उसमें तकलीफें और कष्ट और असफलताएँ भले ही आते हों लेकिन एक सुकून रहता है, बड़ा केंद्रीय सुकून, मैं ठीक हूँ, मैं अपना मालिक हूँ। दूसरा रास्ता मंज़िल तक पहुँचा देता है लेकिन सर को झुकवा कर, आपको जो वास्तव में चाहिए आपको वो दे देता है लेकिन आपसे कुछ मनवा कर, आपको मानना पड़ता है कि आप जो हो, आप जिन तरीकों से चल रहे हो, वो सब पूरा का पूरा ही झूठ है, गलत है, मिथ्या मात्र है। मिलती हो सही मंज़िल लेकिन इतना बड़ा दुख कौन उठाए कि मान ले कि फैसला मैं कर रहा हूँ तो फैसला सही कैसे हो सकता है?
हम बड़े चतुर लोग होते हैं अपनी नज़र में, हम कहते हैं हम गीता को भी अपने उद्देश्य के लिए प्रयुक्त कर लेंगे। तुम्हारे काम का जो उद्देश्य है और गीताकार का जो उदेश्य है, वो उद्देश्य ही मात्र भिन्न नहीं बल्कि दो अलग-अलग आयामों में है। गीता कही गई है अर्जुन को भ्रम, लोभ, देह-भाव, ममत्व भाव से मुक्त करने के लिए, ये गीताकार का, कृष्ण का उद्देश्य है। कृष्ण का उद्देश्य है अर्जुन को सीख देने का कि अर्जुन को दुनिया के बंधनों से निजात मिले और कृष्ण की गीता का दुरुपयोग किया जा रहा है एक ऐसी कंपनी में जो चाह रही है कि किसी तरीके से अपना माल ज़्यादा से ज़्यादा ग्राहकों को बेच सके। वो संस्था काम कर रही है कि बंधन बने रहे, वो संस्था मर जाएगी अगर बंधन खुल गए, टूट गए।
इससे बड़ा दुस्साहस हो सकता है क्या कि मैं ठीक वो करूँगा जिसकी मनाही कृष्ण कर रहे हैं। मैं वो सब कुछ करूँगा जो करने के लिए कृष्ण मना कर रहे हैं, मैं अपने आपको बिल्कुल वही समझूँगा, बिल्कुल वही हो जाऊँ जो कृष्ण ने समझाया है कि मैं हूँ नहीं और ये सब कुछ करने के लिए कृष्ण की ही बातों का विरोध करने के लिए, कृष्ण की ही सीख के विपरीत जाने के लिए मैं इस्तेमाल कर लूँगा कृष्ण की ही गीता का, ये क्या पागलपन है।
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