गिरना शुभ क्योंकि चोट बुलावा है

सर्वभूतेषु चात्मानं

सर्वभूतानि चात्मनि।

मुनेर्जानत आश्चर्यं

ममत्वमनुवर्तते॥३- ५॥

~ अष्टावक्र गीता

आचार्य प्रशांत: जब उस योगी ने जान ही लिया है कि वही समस्त भूतों में निवास करता है और समस्त भूत उसमें हैं, तब ये बड़े आश्चर्य की बात है कि अभी भी उसमें ममत्व बचा रहे। जिस मुनि ने यह जान ही लिया है कि वही समस्त भूतों में है, पूरे संसार में है और पूरा संसार उसमें है, उसके भीतर भी ‘मम’ की भावना बची रहे, ये घोर आश्चर्य है।

तो सवाल ये है कि “सर, आपने कहा था एकबार की सत्य के मार्ग पर चलना भी कल्याण है और गिरना भी कल्याण है। और आपने कहा कि जो जितनी ऊँचाई से गिरता है उसे उतनी चोट लगती है। और अब अष्टावक्र उसी गिरने पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे हैं। ये क्या है?”

सवाल ये है कि मुनि के लिए ‘मम की भावना’ एक प्रकार का गिरना ही है। एक प्रकार का भ्रष्ट होना ही है। कि जिस मुनि ने समस्त भूतो में अपने को और अपने को समस्त भूतों में विद्यमान देख लिया है उसके भीतर भी अभी ममता, अहंता शेष हो, ये उसके लिए गिरने समान ही है। और हमने कहा है कि जो जितनी ऊँचाई से गिरता है वो उतनी चोट खाता है। फिर हमने कहा कि गिरना भी शुभ है और अब अष्टावक्र कह रहे है कि आश्चर्य है कि ये हो कैसे हो जाता है कि इतनी ऊँचाई पर पहुँच कर भी कोई गिर जाता है। तो इन बातों को समझना है।

चोट खाना, जगने की प्रक्रिया का हिस्सा है, चोट खाना, यही इंगित करता है कि जिन तरीक़ों से जी रहे…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org