गहरा प्रेम, गहरा विरोध

अपणे संग रलाँई पिआरे, अपणे संग रलाँई।

पहलां नेहुं लगाया सी तैं, आपे चाँई चाँई; मैं पाया ए या तुध लाया, आपणी तोड़ निभाईं।

-बुल्ले शाह

वक्ता: बुल्ले शाह प्रार्थना कर रहे हैं कि ‘निभाना’। ‘अपणे संग रलाँई प्यारे, अपणे संग रलाँई’- निभाना। ऋचा पूछ रही हैं कि बात थोड़ी विपरीत लग रही है। ‘परम से क्यों कहा जा रहा है कि तुम निभाना? उसके निभाने में शक है क्या? कहना तो यह चाहिए था कि मैं निभाता रहूँ। तो ये बात कुछ विपरीत लग रही है की बुल्ले शाह प्रार्थना कर रहे हैं कि ‘प्रभु तुम निभाना’। बुल्ले शाह क्यों कह रहे हैं ऐसा?’

जो आपने बात कही सुनने में प्यारी है, पर देखिये कि अहंकार के रास्ते कितने सूक्ष्म होते हैं। कबीर कहते हैं न, ‘मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वाश’। अहंकार जब स्थूल होता है, तो कहता है, ‘क्यों निभाऊँ मैं किसी से और निभाने की आवश्यकता क्या है? जो है मेरे सामने है और उसको परखने के लिए, जानने के लिए, मेरे पास बुद्धि है। कोई वादा नहीं, कोई निभाने की बात नहीं, कोई सुरति नहीं, कोई ध्यान नहीं, कोई निष्ठा नहीं, कोई आस्था नहीं, कोई समर्पण नहीं, ज़रूरत क्या है निभाने की?’

यहाँ से बात आगे बढ़ती है, तो कुछ राज़ खुलते हैं। मन को यह स्पष्ट होता है कि निभाना तो पड़ेगा क्योंकि तुम्हारी बुद्धि नाकाफ़ी है, क्योंकि तुम मूर्ख हो। तुम नहीं निभाओगे तो तुम्हारा काम नहीं चलेगा, बड़ा दुःख पाओगे, और दुःख मिल रहा होता है। प्रमाण सामने होता है, तो साक्ष्य अनदेखा नहीं किया जा सकता। तो मन कहता है, ‘हाँ बात तो ठीक है, नहीं निभाया तो…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org