गरीब वो है जिसे अभी और चाहिए!
सुकृत लागै साधु की, बादी विमुख हो जाय।
कै तो तल गाड़ी रहै, कै की औरे खाय।।
कबीर
वक्ता: बहुत बार ऐसा हुआ है कि संतों ने परम को धनी के रूप में संबोधित किया है — साहब, प्यारा, पिया। संतों ने धनी भी उसे खूब बोला है, मात्र उसे ही धनी बोला है। मात्र उसे ही क्यों धनी बोला है? क्योंकि सिर्फ़ उसकी ही सम्पदा ऐसी है जो उसके होने में ही है। जो उससे इतर नहीं है, जो ज़रा भी उससे प्रथक नहीं की जा सकती। दो प्रकार की सम्पदाएँ होती हैं: एक वो जो आपके पास होती है, आपने इकट्ठा की होती है, और दूसरी वो जो आप होते हैं। दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। एक सम्पदा वो जो आपके पास है, दूसरी सम्पदा वो जो आप स्वयं हैं।
जिन्होंने जाना है, जीवन को और संसार को समझा है, उन्होंने साफ़-साफ़ देख लिया है कि वो सम्पदा जो हमारे पास है वो किसी मोल की नहीं। क्योंकि जो कुछ भी आपके पास है वो आपके सीमित होने के भाव को ही गहराता है। आप सीमित थे, आप कम थे, आप छोटे थे, आपने कुछ इकट्ठा कर लिया; वो आपमें इसी भाव को गहराता है कि “मैं छोटा हूँ और अस्तित्व मुझसे कहीं अलग और कहीं बहुत बड़ा है”। आपका अस्तित्व से नाता डर का और लूट-खसोट का रह जाता है। आप एक ओर तो अपने क्षुद्रपन से डरे हुए होते हो, दूसरी ओर आप अस्तित्व से जितना नोंच सकते हो, जितना संग्रहित कर सकते हो, करना चाहते हो — ये भी पा लूँ, वो भी पा लूँ, इकट्ठा कर लूँ। क्यों इकट्ठा कर लूँ? क्योंकि मैं बहुत छोटा हूँ। मेरे लिए बहुत आवश्यक है इकट्ठा करना। ये वो सम्पदा है जो आपके पास होती है। ये वो सम्पदा है जिसके बारे में आप दावा करते हो कि मैंने अर्जित करी है। और ये सम्पदा, दो कौड़ी की नहीं है। ये किसी भी तरह से सम्पदा है ही नहीं। ये मात्र भ्रम है। ये आपका बोझ है।
जब परम को धनी बोला जाता है तो इस अर्थ में नहीं बोला जाता है कि उसके पास बड़ा सोना-चांदी है और संसार भर का जितना ऐश्वर्य है सब उसके पास इकट्ठा है। नहीं, इस अर्थ में नहीं बोला जाता। उसको इस अर्थ में बोला जाता है कि उसको कुछ पाने की आवश्यकता ही नहीं है। वो इतना पूरा है कि वो कुछ पा सकता ही नहीं है, इस कारण वो धनी है। उसके पास सम्भावना ही नहीं है कुछ और ले पाने की क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं। तो कहाँ से और कुछ लाएगा? वो इस कारण धनी है।
वही असली धन है जो तुम्हारे होने में है।
हम जिस धन को इकट्ठा करते हैं, उसको इकट्ठा करना सिर्फ़ हमें और गरीब बनाता है। समझिएगा इस बात को।
गरीब कौन है? गरीब वो, जिसको अभी और की तलाश है, वही गरीब है।
गरीब वो नहीं जिसके पास कम है। गरीब वो है जिसको अभी और चाहिए। जिसको अभी और चाहिए, वो ही गरीब है। आप जितना इकट्ठा करते हैं, आप अपनी दौलत को नहीं अपनी गरीबी को बढ़ाते हैं। जिसने जितना इकट्ठा कर रखा है, आप अगर साफ़ आँखों से देखेंगे तो आपको दिखाई देगा कि वो उतना महा-गरीब है।
वो सुना है न कि फ़कीर मर रहा था, तो उसने कहा “ये मेरे पास कुछ सिक्के जमा हो गए हैं, लोग आते थे दान दे जाते थे। तो मर रहा हूँ तो उसको ही दूँगा जो सबसे गरीब होगा। तो उसने कहा भाई, जो सबसे गरीब हो वो आए और ये सिक्के ले जाए। मैं तो जा रहा हूँ।” तो लोग लालच-वश आते, उसके सामने खड़े हो जाते कि हम ही गरीब हैं, हमें ही दे दो। वो कहता “हाँ-हाँ, तुम कहाँ गरीब हो।” तो एक दिन ऐसे ही अपने सिक्के ले कर के, सड़क किनारे पड़ा हुआ था। वहाँ से राजा की सवारी निकली। उसने सारे सिक्के उठाए और राजा पर फ़ेंक दिए। राजा ने कहा “क्या कर रहे हो?” उसने कहा “दान दे रहा हूँ। महा-गरीब की तलाश में था, वो मिल गया।” उसने कहा “बूढ़े आदमी! तू मर रहा है, तुझसे क्या कहूँ? पर मैं राजा हूँ, मैं तुझे गरीब दिख रहा हूँ?” उसने कहा “तुझसे ज़्यादा और कोई नहीं है जिसे चाहिए। तुझसे ज़्यादा महत्वकांक्षी इस पूरे राज्य में और कोई नहीं है, और महत्वकांक्षा से बड़ी गरीबी कोई दूसरी नहीं।” महत्वकांक्षी को आतंरिक रूप से बड़ा दरिद्र होना पड़ेगा। जिसके बड़े-बड़े सपने हैं, दौलतें कमा लेने के, कुछ भी अर्जित कर लेने के, भीतर से बड़ी तृष्णा, बड़ी भूख, बड़ी प्यास है — बड़ा दरिद्र है वो। महत्वकांक्षा तो आपकी दरिद्रता के दुःख की कहानी है। जितना आपमें अपने भिखारी होने का भाव सघन होगा, आप उतना ज़्यादा अर्जित करना चाहेंगे, उतना कमाना चाहेंगे।
दो तरह की संपदाओं की हमने बात करी; वहीँ पर कबीर कह रहे हैं कि साधु की जो सम्पदा है, वो सुकृत है। कृतियाँ दो तरह की होती हैं। कृतित्व दो तरह का होता है: एक वो, जो आपने बनाया। आप जो भी बनाओगे वो अपने प्रयोग के लिए बनाओगे, अपने इस्तेमाल के लिए बनाओगे, अपनी आवश्यक्ताओं की पूर्ती के लिए बनाओगे। आप जो भी बनाओगे, वो बासी, पुराना और सीमित ही होगा। उसे सुकृत नहीं कह सकते। सुकृत तो सिर्फ़ वो है, जो पूर्णता से निकलता है — “मुझे कुछ चाहिए नहीं, मैं फिर भी बना रहा हूँ”। मात्र वही सुकृत है। हम जब कुछ बनाते हैं, हमारी एक-एक कृति हमारे भिखारीपन से निकलती है। हमने जितने महल खड़े किए हैं वो सब के सब यही बता रहे हैं कि हम कितने डरे-सहमे से थे, कितने खाली थे। साधु अपने आप में पूरा है। उसकी सम्पदा उसके होने में है। इसीलिए उसकी सम्पदा कभी नष्ट नहीं हो सकती, अक्शुन्य रहेगी। समझ रहे हो?
जो असली है वो कभी उससे छिन ही नहीं सकता, कभी नहीं छिन सकता। क्योंकि उसने जो कमाया है वो उसकी अपनी कृति है ही नहीं। जो तुम्हारा अपना है वो तुमसे छिन कर रहेगा। तुम जिस किसी को भी दावा करोगे कि ‘मेरा’, पक्का है कि समय वो तुमसे छीन लेगा। तुम बोलो ‘मेरा’ कुछ भी — मेरे रिश्ते, मेरे नाते, मेरी इज्ज़त, मेरा ज्ञान, रुपया-पैसा, घर-द्वार, समय छिन कर ही रहेगा क्योंकि समय ने ही दिया है। वो तुम्हारी कृतियाँ हैं, वो तुम्हारा कर्म है, वो तुमने किया, वो तुमने कमाया है और उसका कोई महत्व नहीं क्योंकि तुम अच्छे से जानते हो कि वो जा रहा है, प्रति-पल वो छिन रहा है और यही डर है जीवन का, वो सुकृत नहीं है। साधु का अपना कुछ है ही नहीं और क्योंकि उसका कुछ अपना है ही नहीं इसी लिए छिनने का सवाल ही नहीं पैदा होता। भूल से कभी ये मत कह देना कि साधु के पास कुछ होता नहीं है इस कारण उससे कुछ छिन नहीं सकता। साधु के पास परम सम्पदा होती है, इस कारण उससे नहीं छिन सकती।
भारत ने एक ही इकाई के दो नाम दिए हैं: भिक्षु और स्वामी। और भिक्षु ही स्वामी होता है। ब्राह्मणों ने कहा स्वामी; बोद्धों ने कहा भिक्षु। भिक्षु ही स्वामी होता है क्योंकि उसके पास परम सम्पदा है, जो छिन नहीं सकती। मिट ही नहीं सकती, सुकृत है।
‘बादी विमुख की जाय’
विमुखता क्या है?
विमुखता क्या है इसके लिए कबीर ने ही बड़े प्यारे तरीके से कहा है-
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय।
भगता के पीछे फिरे, सम्मुख भागे सोय।।
सम्मुख सदा सत्य होता है; विमुखता का अर्थ है सत्य को पीठ दिखा देना — यही माया है। जो सम्मुख है, जो सामने है, जो प्रत्यक्ष है, वो लगातार है और माया का काम ही यही है कि जो सम्मुख है उससे भागो, इसी का नाम विमुखता है। जो सम्मुख है, उसी से भागना ही विमुखता है।
सामने ही खड़ा है, तुम उससे इनकार कर रहे हो। हालाँकि मज़ेदार बात ये है कि तुम जिधर को भी भागोगे, सामने उसे ही पाओगे, इस रूप में नहीं तो उस रूप में पाओगे। तो इन भागने वालों का हश्र क्या होना है? कि ये भाग भी नहीं सकते ठीक से कभी इधर को भागेंगे, कभी उधर को भागेंगे, जिधर को भी भागेंगे, सत्य की ठोकरें लगती रहेंगी।
‘बादी विमुख की जाय’
एक सम्पदा है साधु की जो नष्ट हो नहीं सकती और एक सम्पदा है इस फँसे हुए विमुखता को पकड़े हुए व्यक्ति की — इसकी व्यर्थ ही जानी है। इसकी सम्पदा किसी काम नहीं आनी है क्योंकि इसका जो कुछ है वो झूठा है, नकली है, उससे न तो इसे आनंद मिला है, न किसी और को मिलेगा। बड़ी मज़ेदार बात है। इसने जो सम्पदा अर्जित करी थी, इसे खुद उससे कुछ नहीं मिला, पर ये बड़ा उत्सुक है इसे दूसरों के लिए छोड़ जाने में। इससे पूछा जाना चाहिए “तुझे खुद मिला इससे कुछ? जब तुझे खुद नहीं मिला तो इसे दूसरों के लिए छोड़ जाने में क्यों उत्सुक है इतना?” कबीर सलाह देते हैं उसको कि “तू छोड़ कर तो जाएगा इस सम्पदा को दूसरों के लिए पर उसका अंजाम यही होना है कि ‘कै तो तल गाड़ी रहे, कै कोई औरे खाए’, कि या तो ज़मीन के नीचे गड़ी रहेगी, जैसे तेरे जीवन काल में गड़ी रही। तब ज़मीन के निचे गड़ी रहती थी अब बैंकों में गड़ी रहती है कि जीवन भर बैंक में पड़ी रही और बैंक में पड़े-पड़े तू सिधार भी गया। ‘कै कोई औरे खाए’, या फिर कोई और उसका भक्षण करेगा। और ये नहीं कि जो भक्षण करेगा उसे भी उससे कुछ मिल जाना है।” कबीर सन्देश दे रहे हैं उन लोगों को जो माता-पिता हैं, उन लोगों को जो धन के परिग्रह में लगे हुए हैं, बच्चों के लिए धन छोड़ कर मत जाओ, बच्चों को धनी बनाओ। अंतर है इन दोनों बातों में, कहा है किसी ने-
‘पूत कपूत तू क्या धन संक्षे, पूत सपूत तू क्यां धन संक्षे’
अगर कपूत ही निकल गया तो तुम्हारे धन संक्षय करने का क्या फायदा हुआ? क्योंकि जो तुम उसे धन दोगे, उस धन से वो सिर्फ़ विविचार करेगा और अगर पूत, सपूत ही निकल गया तो वैसे भी तुम्हारे धन को वो लेगा ही नहीं। कोई सपूत अपने पिता के दिए हुए धन को स्वीकार नहीं करता। तो ‘पूत कपूत तू क्या धन संक्षय’? अगर पूत कपूत ही निकल गया तो वो तुम्हारे दिए हुए धन से सिर्फ़ आत्म-हत्या ही करेगा, अपनी ही बर्बादी के इंतज़ाम करेगा। और ‘पूत सपूत तू क्या धन संक्षय?’ तो यही कह रहे हैं कबीर। और कबीर उन सब से कह रहे हैं जो व्यक्तियों को परखने में उत्सुक हैं। तुम देखो किसी को तो ये मत देखो उसके पास क्या है, ये मत देखो कि उसकी शैक्षिक योग्यताएँ क्या हैं, उसकी इज्ज़त कितनी है, उसके कपड़े कैसे हैं, पैसा कितना है उसके पास, नहीं, ये सब मत देखो; देखो कि वो कौन है, वो कैसा है। वही असली सम्पदा है, पर ऐसे हमें किसी को देखना आता नहीं। हम किसी को देखते हैं, तो हम नहीं देखते हैं कि वो कौन है, हम देखते हैं कि उसके पास क्या है।
‘कहत कबीर समुझाई’
समझ सकते हो तो समझ लो कि धन वास्तव में क्या है? असली धन वो जो कमाया गया न हो; जो तुमने कमाया है, वो असली धन हो नहीं सकता। असली धन वो जो कमाया गया न हो। असली धन वो जो किसी से प्राप्त न किया हो, असली धन वो जिसके छिनने की कोई संभावना न हो। बाकी सारे धन, उनका यही हश्र होना है कि ‘कै तो तल गाड़ी रहे, कै कोई औरे खाय’। या तो तुम जब मर रहे होगे तो पाओगे कि सब गड़ा हुआ है तल ज़मीन के नीचे या फिर उसको…। तुमने पूरे जीवन करा क्या? रिक्तता का ऐसा भाव था अन्दर कि इकट्ठा करते रहे, तो जीवन भर तुमने यही किया कि इकट्ठा करा और जब मर रहे थे तो जो इकट्ठा करा था उसको छोड़ कर के जा रहे थे। कैसा लगता होगा? या तो जो जीवन भर इकट्ठा करा था उसको भोग ही लेते। (हँसते हुए) कैसा लगता होगा? तुम सत्तर-साल जीये, सत्तर-साल में सात करोड़ इकट्ठा कर लिए। सत्तर-साल में कुल कमाई की, सात करोड़। जब मर रहे थे तो छह करोड़ छोड़ के मर रहे थे तो जीवन के कितने साल व्यर्थ किये?
एक सिंघासन चली चले, एक बाँध ज़ंजीर।
काहे को इकट्ठा किया था?
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।