खुद जग जाओ, नहीं तो ज़िंदगी पीट कर जगाएगी

प्रश्न: आचार्य जी, आज दिन भर तमस हावी रहा है। मैं देख रहा था कि उसपर मेरा वश चल नहीं पा रहा था ज़्यादा। कभी देख पा रहा था, कभी लुढ़क रहा था, और कभी उठा रहा था ख़ुद को। ये लगातार चलने वाली प्रक्रिया है या कुछ और है?

आचार्य प्रशांत: देखो बेटा, शरीर तो होता है जड़। ठीक है? तमसा शरीर की तो होती नहीं। कोई कुछ भी बोले कि लोग तीन तरह के होते हैं, या लोगों ने जो भोजन कर लिया होता है वो तीन तरह का होता है इसीलिए वो भोजन कर-करके लोगों के शरीर तीन तरह के बन गए होते हैं। कई लोग होते हैं, कहते हैं, “मेरा शरीर बड़ा आलसी है।” बेकार की बात है!

तुम आलस करने में आलस करते हो क्या?

एक बार तो बड़ा मज़ा लगा था। तब रविवार को सुबह-सुबह सत्र हुआ करते थे, कई साल पहले की बात है। तो नौ बजे लोगों को आना होता था। मैं कहूँ, “नौ बजे आ ही जाना, नहीं तो दरवाज़े बंद कर दूँगा, फिर सत्र में नहीं बैठ पाओगे।” गर्मी में तो फिर भी ठीक था, जाड़ों में जो लोग दूर से आएँ, कोई गुड़गांव से आ रहा, कोई कहीं से आ रहा, वो नौ बजे पहुँचे ही नहीं। जाड़ों में आने वालों की संख्या भी कम हो जाए। पूछो तो कहें, “जाड़ा बहुत है, आलस आता है। सात बजे तक तो अंधेरा ही रहता है, कैसे उठा करें?” ये… वो…।

तो एक बार मैंने दूसरा प्रयोग किया, मैंने कहा, “आज नौ बजे दरवाज़ा मत बंद करना, दरवाज़ा खुला रहने देना, जितने आते हैं आने देना। आज सत्र शुरू होने के समय दरवाज़ा खुला रहेगा, नहीं बंद होगा।” दरवाज़ा खुला रहा, लोग आते रहे, आते रहे। जब आ गए, सत्र हो गया, तो मैंने कहा, “अब दरवाज़ा बंद कर दो! आज आने के लिए खुला था, आज लौटने के लिए नहीं खुलेगा। आज लौटने के लिए बंद रहेगा।” जितने लौटने वाले थे वो सब दरवाज़े पर पहुँच गए, दरवाज़ा पीटने लगे, बोले, “खोलो! खोलो!” बोले, “जाने दो!” स्वयंसेवकों ने कहा, “दरवाज़ा तो खुलेगा नहीं, चाबी आचार्य जी के पास है।”

मैंने कहा, “तुम लोग भाई आलसी लोग हो, या तुम्हें बस आने में आलस आया था?” जहाँ से आए थे, और आने में जितना रास्ता तय किया था, यहाँ से वहीं को वापस लौटोगे, और वापस लौटने में भी उतना ही रास्ता तय करोगे। तो अगर तुमको आने में आलस था, तो वापस लौटने में भी आलस होना चाहिए बिल्कुल बराबर का। तो बिल्कुल आलस करो न। आलस दिखाओ! दरवाज़ा बंद है, सो जाओ।”

“नहीं, नहीं, कोई आलस नहीं है। जाने दो! जाने दो! बहुत मार पड़ेगी।”

“नहीं, तुम तो आलसी लोग हो। वापस जाने में भी आलस करो न, या बस आने में ही आलस होता है? अगर वाकई तुम पक्के और सच्चे आलसी होते तो जितना आलस तुम्हें यहाँ तक आने में होता, उतना ही आलस तुम्हें यहाँ से वापस जाने में भी होता। पर वापस जाने में तुम्हें कभी आलस नहीं…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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