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खर्च-खर्च में अंतर

खान खर्च बहु अंतरा, मन में देख विचार

एक खवावे साध को, एक मिलावे छार

~ संत कबीर

आचार्य प्रशांत: हम जिसको ज़िन्दगी बोलते हैं, उसमें हम दो ही काम करते हैं - इनपुट, आउटपुट। खाना माने इनपुट; खर्चा माने आउटपुट। तुमने खाया, फ़िर उसी को… तो ये पूरा जीवन ही इसमें आ गया। कबीर कह रहे हैं, करते सब यही हैं -– खाना, खर्चना — पर खाने-खाने और खर्चने-खर्चने में बहुत अंतर है। ज़रा इस बात को समझो। जीते सभी हैं, सभी दो पाओं पर ही चलते हैं, सबको यही दुनिया उपलब्ध है, पर जीने के ढंगों में इतना अंतर हो सकता है कि एक खवावे साधु को, एक मिलावे छार। एक वो है जो साधु के पास ले जाएगा तुमको, ऐसा जीवन, ऐसी चाल, और दूसरी वो है जिसमें फ़िर छार ही छार मिलनी है।

छार माने? — खारापन।

तो कैसे चलना है, ज़िन्दगी कैसी बीतनी है, ये तुम निर्धारित कर लो। खाना-खर्चना, कैसा करना है, ये तुम देख लो। करोगे यही, कुछ कभी बदल नहीं जाना। ऊँचे से ऊँचे संत में और पतित से पतित गधे में कोई विशेष अंतर नहीं होता है। दोनों साँस लेते हैं, दोनों पाओं से चलते हैं, दोनों खाते हैं, दोनों जीवन व्यापन करते हैं, लेकिन, ढंगों में अंतर होता है। एक राम के पास पहुँच जाता है, एक छार के पास पहुँच जाता है।

प्रश्नकर्ता: सर, छार का क्या मतलब होता है?

आचार्य: छार, मतलब कोई भी ऐसी चीज़ जो रूखा करके रख दे। जो पानी सोख ले। जिसमें मिठास ना हो। जिसमें अर्द्रिता ना हो। जिसके होने से ज़िन्दगी रूखी हो जाये, रसहीन हो जाये, वही छार हुआ।

पूरा वीडियो यहाँ देखें।

आचार्य प्रशांत और उनके साहित्य के विषय में जानने, और संस्था से लाभान्वित होने हेतु आपका स्वागत है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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