खतरनाक‌ ‌हैं‌ ‌स्त्रियाँ‌

प्रश्नकर्ता: उस तक जाने का रास्ता वही बताए, उसी ने शायद मुझे आपसे मिलवा भी दिया। साक्षात्कार के दौरान आपने कुछ ग्रंथों के पढ़ने के लिए कहा था जिनमें अष्टावक्र गीता, विवेक चूड़ामणि मुख्य थे। उनका पठन मैंने कर लिया है और आजकल रामकृष्ण परमहंस जी की कथामृत पढ़ रही हूँ। कबीर ग्रंथावली के भी कुछ अंश पढ़े हैं। यूँ तो इन ग्रंथों को पढ़ने के बाद, जो जिज्ञासु मन है वह शांत ही है। इधर-उधर के प्रश्न नहीं कर रहा है। पर एक प्रश्न है जो हमेशा से मेरे लिए प्रासंगिक रहा। वह प्रश्न आज आपके साथ साझा करना चाहती हूँ- बार-बार ज्ञानी जनों ने अलग-अलग स्थानों पर कहा है कि “स्त्रियों से दूर रहो! वह तुम्हारे लिए अति हानिकारक हो सकती हैं।” क्या आचार्य जी ऐसा विशेष रूप से स्त्री के पक्ष में ही कहा गया है? या फिर स्त्रियों के लिए भी पुरुष हानिकारक उतने ही हैं?

आचार्य प्रशांत: देखिए! भारत के और पूरब के समस्त प्राच्य दर्शन में लिंग की विशेष महत्ता नहीं है। किन तत्वों की बात की जाती है? कौन से तत्व आधारभूत माने गए हैं सब दर्शन में? मन! जिसको अनेकों नामों से संबोधित किया गया है। सत्य! जिसे पुनः अनेकों नामों से संबोधित किया गया है और मन और सत्य के मध्य की सच्ची-झूठी दूरी जिसे कभी माया कहा गया, कभी प्रकृति कहा गया, कभी अविद्या कहा गया। बाकी अध्यात्म के शब्दकोश में आपको जितने भी शब्द मिलें, वो समझ लीजिएगा कि इन्हीं दो-तीन मूल आधारों के या तो पर्याय हैं या जोड़-घटाव हैं। इन्हीं दो-तीन मूल शब्दों को लेकर के एक पूरा आध्यात्मिक जगत, एक समुच्चय, एक यूनिवर्सल सेट खड़ा हो जाता है। ठीक है? उसमें जीव की बात तो होती है, आदमी-औरत की बात नहीं होती। अच्छे से समझिए! जीव की बात तो होती है औरत-मर्द की, स्त्री-पुरुष की बात नहीं होती।

अध्यात्म की दृष्टि में आप में और आप में(सामने बैठे शिविर के दो प्रतिभागियों की तरफ ईशारा करते हुए) ये अंतर नहीं है कि आप शारीरिक रूप से स्त्री हैं और ये पुरुष हैं। अध्यात्म की दृष्टि से, आप में और आप में अंतर बस इस बात का है कि आप माया की ओर कितनी आकर्षित हैं? आपके जीवन के चुनाव कैसे हैं? और इनके जीवन के चुनाव कैसे हैं? और दोनों में समानता बल्कि एकता कहाँ पर है? की मूल रूप से दोनों एक हैं और चुनाव चाहे जो कुछ भी कर रहे हों, जैसे भी कर रहे हों, सब चुनावों का प्रकट-अप्रकट ध्येय एक ही है- जिसको सत्य भी कहते हैं, आत्मा भी कहते हैं, मुक्ति भी कहते हैं। बात समझ रहे हैं? तो ये तो अजीब बात हो गई एक ओर तो प्रश्न में ये कहा गया है कि बहुत सारे ग्रंथों में, बहुत सारे संतों ने भी स्त्री को नर्क का द्वार तक बता दिया, पुरुषों को कहा है उसी से दूर रहो और इस तरह की तमाम बातें। कई-कई जगह पर तो बड़े विस्तार से कही गई हैं। है न? और दूसरी ओर यहाँ ये वक्ता हैं (अपनी ओर इशारा करते हुए) जो कह रहे हैं…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

More from आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant