क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ क्या हैं? सृजनात्मकता का वास्तविक अर्थ क्या है?

कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।

कार्य और कारण को उत्पन्न करने में हेतु प्रकृति कही जाती है और जीवात्मा सुख-दु:ख के भोक्तापन में अर्थात् भोगने में हेतु कहा जाता है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १३, श्लोक २१

उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः।।

इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है। वह साक्षी होने से उपदृष्टा और यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमंता, सबका धारण-पोषण करने के कारण भर्ता, जीव रूप से भोक्ता, ब्रह्मा आदि का स्वामी भी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा—ऐसा कहा गया है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १३, श्लोक २३

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मनाऽऽत्मानं ततो याति परां गतिम्।।

क्योंकि जो पुरुष सबमें समभाव से स्थित परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा अपने को नष्ट नहीं करता, इससे वह परम गति को प्राप्त होता है।

—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १३, श्लोक २९

प्रश्नकर्ता: परम पूज्य आचार्य जी, कृपया प्रकृति और पुरुष का भेद समझाएँ। भोगने से क्या आशय है?

प्र२: तेइसवें श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि देह में स्थित आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है जो विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती है। आगे कहते हैं कि सब भूतों में परमात्मा को नाशरहित और समभाव से स्थित…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org