क्रान्तिकारी भगत सिंह, और आज के युवा
--
आदमी की कुल उम्र का एक बहुत छोटा-सा अंश — तीसरा हिस्सा, चौथा हिस्सा, पाँचवा हिस्सा। तो युवावस्था में समय बिताते हो अपनी कुल उम्र का एक चौथाई या उससे भी कम, लेकिन समस्याएँ आ रही हैं आधी।
देख रहे हो, हो क्या रहा है?
जो समय जीवन का शक्तिकाल, स्वर्णकाल होना चाहिए था, उसी समय में सबसे ज़्यादा समस्याओं से घिरे हुए हो, बतौर एक युवा।
क्यों घिरे हुए हो?
कारण सीधा है। जहाँ जितनी ज़्यादा संभावना है, वहाँ उतना ही अधिक खतरा भी होगा ही होगा। आकाश की सम्भावना कभी पाताल के खतरे के बिना नहीं आती। शक्ति मिली है, यौवन मिला है, समय मिला है, तो उसी के साथ-साथ ये अभिशाप भी मिला है कि अगर सही तरीके से नहीं बिताओगे उस समय को तो बहुत दुःख पाओगे, बहुत मार खाओगे, बहुत ज़्यादा समस्याओं से ग्रस्त रहोगे।
जब जवान होते हो तब सबसे ज़्यादा आकर्षण घेरते हैं तुम्हें, हर तरीके के। अहम् की तो मूल भावना होती ही यही है कि संसार भोग के लिए है। “मैं अतृप्त हूँ, और संसार को भोगकर मुझे तृप्ति मिल जाएगी,” यही नाम है अहम् का। ठीक? ये धारणा वो रखता जन्म के प्रथम-पल से आखिरी-पल तक है: “अधूरा हूँ मैं, और दुनिया में कुछ खोजूँगा, कुछ पाऊँगा तो पूरा हो जाऊँगा”। लेकिन दुनिया में खोज पाने की शक्ति और दुनिया को भोग पाने की शक्ति सबसे ज़्यादा होती है युवावस्था में। तो इसीलिए भोग की लालसा भी सबसे ज़्यादा युवावस्था में ही होती है। सारा ध्यान, सारा समय, सारी ऊर्जा बह निकलती है संसार की ओर―“दुनिया में ये पा लूँ,” “ये कमा लूँ,” “ये हाँसिल कर लूँ”।
किसके लिए?
अपनी उस अतृप्ति के लिए जो वास्तव में किसी भी उपलब्धि से मिटने वाली नहीं है।
कायर ही नहीं होते सब, मेहनत भी खूब की जाती है। तमाम तरह के संगठन, तमाम कंपनियाँ युवाओं को ही चुनती हैं काम कराने के लिए, मेहनत के लिए, उत्तरदायित्व देने के लिए। क्योंकि पता है कि मेहनत तो सबसे ज़्यादा कोई युवा ही करेगा। तो मेहनत खूब की जाती है लेकिन अपनी अंधी तृष्णा को शांत-भर करने के लिए। नतीजा? ढाक के तीन पात! न सिर्फ तड़प बाकी रह जाती है बल्कि तड़प सारी मेहनत के बाद भी बाकी रह जाती है। क्योंकि जो कर रहे हो गलत दिशा में, गलत उद्देश्य के लिए कर रहे हो। करोगे खूब, पाओगे कुछ नहीं। ये है कहानी जवानी की। खूब दौड़े-धूपे, खूब अरमान सजाए, सपने लिए, मेहनत कर-करके घरोंदे बनाए; सत्यता उसमें कुछ नहीं, पाया कुछ नहीं, स्थायित्व कुछ नहीं, नित्यता कुछ नहीं। क्योंकि जो किया, उसके लिए किया जो कभी तृप्त हो ही नहीं सकता — कितना भी तुम उसको भरते रहो, खिलाते रहो।