क्यों भटक रहे हो?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कबीर बार-बार कहते हैं–
एहु अनमोलक जीवन पायो, सद्गुरु सबद ध्यायो। कहें कबीर पलक में सारी, एक अलख दरसाओ।। ~ कबीर साहब
और फिर दोबारा कहते हैं–
जल थल सागर पूर रहया है, भटकत फिरे उदासी। कहे कबीर सुनो भाई साधो, सहज मिले अविनाशी।। ~ कबीर साहब
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कबीर किन के बारे में बात कर रहे हैं, कुछ हैं जो भटक रहे हैं, उदास हैं, और हर जगह ढूॅंढ रहे हैं और उन्हें नहीं मिल रहा। और कुछ हैं जो इतने ईमानदार हैं कि बिना ढूँढे़ ही उन्हें मिल रहा है?
आचार्य प्रशांत: देखो, ढूँढ़ सभी रहे हैं, ऐसा कोई नहीं है जो न ढूँढ़ रहा हो; मन से चूक हो जा रही है। उसको चूक बोलें या उसकी विवशता बोलें, कुछ भी बोल सकते हैं। वो ढूँढ़ तो रहा है, पूरी जान लगा के ढूँढ रहा है लेकिन वो बेचारा क्या करे वो वहीं ढूँढ़ रहा है जहाँ वो ढूँढ़ सकता है। और वो कहाँ ढूँढ़ सकता है? तुम्हारा कुछ खो जाए, तो तुम कहाँ ढूँढ़ने निकलोगे?
प्र: जहाँ आख़िरी बार देखा हो।
आचार्य: और तुम आख़िरी बार या पहली बार या किसी भी बार कहाँ देखते हो? जब भी कुछ देखते हो तो कहाँ देखते हो? कहाँ देखते हो, अपना दायरा परिभाषित तो करो? तुम जब भी किसी चीज़ को देखते हो, छूते हो, सुनते हो, अनुभव करते हो, वो कहाँ पर होता है?
प्र: बाहर।
आचार्य: बाहर माने कहाँ?
श्रोता: इंद्रियों से ही।