क्यों जीना पड़ता है स्त्रियों को मजबूरी में?

सब भावनात्मक निर्भरता पदार्थगत होती है। दैट व्हिच यू कॉल्ड इमोशन, इज़ मोस्टली इकोनॉमिक्स।

कुत्ता होता है न? कल माता जी मुझसे कह रही थीं कि “कुत्ता अगर पालना तो रोटी उसे तुम ही देना। भले ही उसे बहुत लोग खिलाएँ या कुछ भी करें, पर रोटी अपने ही हाथ से देना। कुत्ता तुमसे भावनात्मक रूप से जुड़ जाएगा।” क्यों — इमोशन इज़ मोस्टली इकोनॉमिक्स।

तो भावनात्मक निर्भरता, आर्थिक निर्भरता है। मत कहो कि ये भावनात्मक निर्भरता है। ये निर्भरता आर्थिक है।

क्या वास्तव में तुम्हें आर्थिक तौर पर निर्भर होने की आवश्यकता है?

कुछ लालच होगा। लालच के अलावा गुलामी की और कोई वजह नहीं होती। और लालच तो हमेशा आर्थिक ही होता है। तो मत कहो कि भावनाओं के कारण बँधी हुई हो। बात पैसे की है।

हो सकता है कि चैतन्य रूप से तुम ऐसे न सोचती हो। हो सकता है कि मैं जो बात कह रहा हूँ, वो सुनने में भद्दी भी लग रही हो। पर अपने मन की गहराई में उतरो। उसमें कहीं न कहीं तुमको आर्थिक आकर्षण दिखाई देगा। क्यों है ऐसा कि इस प्रकार के बंधन स्त्रियों को ही ज्यादा अनुभव होते हैं? कल विस्तार से बात करी थी हमने — ग्यारह बजे नहीं कि सभा से कुछ लोग उठ कर के चले गए। और जितने लोग उठ कर के चले गए उसमें शत-प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। क्या कहोगे? वो भावनात्मक थीं इसलिए उठ कर चली गईं? न, और हर उम्र की थीं।

जैसे अभी तुम यहाँ कह रही हो कि ये बढ़ी उम्र की हैं, ये देख कर तुम्हें ताज्जुब हो रहा है। कल पंद्रह वर्ष से लेकर के पैंसठ…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org