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क्यों कहा जाता है, “शरीर मेरा नहीं है”?
I am not the body, nor have I the body
मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है
अष्टावक्र गीता, (अध्याय-2, श्लोक-22)
प्रश्नकर्ता: पहली लाइन तो बार-बार सुनी भी है और शायद उसके कारण हमें लगता है कि “मैं देह नहीं हूँ” पर जो उसकी अगली लाइन है कि “न देह मेरी है” इस वक्तव्य को समझाने के लिए थोड़ा सा इस पर प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: अष्टावक्र कह रहे है कि, आत्मस्थ की वो स्थिति होती हैै जहाँ वो देह से सम्बन्धित अनुभव करता ही नहीं। वो मिट गया है, देह अपना काम कर रही है।
मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है
मेरी का अर्थ होता है, मालकियत। शरीर है, किसका है, शरीर? शरीर का है, मेरा नहीं है। न देह मेरी है का अर्थ यह नहीं है कि देह का कोई अस्तित्व ही नहीं बल्कि मालिकियत को नकारा जा रहा है। देह है पर मेरी नहीं। तो किसकी है? अपनी है! यह एक आत्म-संलग्न प्रणाली है जो स्वयं को संचालित करना जानती है। इसमें मस्तिष्क है, अंग हैं। देह अपने आपमें पूरी है, स्व-संचालित है, मैं इससे स्वयं को अनावश्यक रूप से नहीं बांधूंगा।
शरीर तो है पर मेरे पास शरीर नहीं है। हैविंग का अर्थ होता है मालकियत, ओनरशिप, पोजेसन । शरीर है, किसका है शरीर? शरीर का है, मेरा नही है।
एक प्रयोग करियेगा, किसी भी ग्रन्थ में खूब डूबने के बाद, उठिएगा और आईने में अपनी शक्ल देखियेगा। आपको कुछ समय लगेगा ये याद करने मे कि ये आप ही हैं। नहीं तो जो प्रतिबिंब आएगा वो क्षण, दो क्षण, पांच क्षण के लिए अंजाना सा लगेगा। आप कहेंगे किसी का है। फिर पुरानी स्मृतियाँ पुनः सक्रिय होंगी और आपको याद आएगा कि अरे! ये तो मैं हूँ। नहीं तो आप वो हैं नहीं, वो देह है। देह के साथ आपने एक फ़िज़ूल नाता जोड़ हुआ है।
सत्संगति में रहने पर, शात्राभ्यास करने पर, थोड़ा सा अनुभव हो जाता है उस नाते के टूटने का। आप अपनी शक्ल को वैसे ही देखेंगे जैसे आप दीवार को देख रहे हैं, या किसी बंदर की शक्ल को देखते हैं, या किसी अपरिचित की शक्ल को देखते हैं। आपके भीतर तुरन्त कोई तादात्म का भाव नहीं उठेगा। आप तत्काल ये नहीं कहेंगे — मैं। कह देंगे, थोड़ी देर लगेगी लेकिन।
शरीर वास्तव में मात्र अपना ही है। शरीर आपका नहीं।
अष्टावक्र के शब्द सिर्फ एक ध्रुव-तारे की तरह हैं, बहुत दूर की बात हैं। वो इसलिए हैं ताकि आपको हौंसला मिले कि ऐसा भी हो सकता है। अष्टावक्र के शब्दों को रट मत लीजिएगा। वो उनकी बात है “मैं देह नहीं हूँ, न देह मेरी है” ये आपका तो अनुभव नहीं है न। ये आपकी तो वास्तविकता नहीं है न। आप तो किसी और ही भावना में जी रहे है; मैं देह हूँ, यह देह ही मेरी है तो, बिना अष्टावक्र हुए, अष्टावक्र की बात दोहराने मत लग जाइयेगा। ये अध्यात्म में ख़ूब होता है कि अष्टावक्र अभी हुए नहीं, लेकिन शब्द किसके पकड़ लिए…