क्या है ढ़ाई आखर प्रेम का?

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय । ।

~ कबीर साहब

‘प्रेम’ माने — चाह। ज्ञान माने — पता होना कि रास्ता कैसा है।

ज्ञान माने पता होना कि तुम्हारा वाहन कैसा है। ज्ञान माने पता होना कि तुम्हारे पास संसाधन क्या-क्या हैं, क्या तुम्हारी शक्ति है, क्या तुम्हारी सीमा है; तेल कितना है तुम्हारी गाड़ी में, तुम्हारा रास्ता कहाँ-कहाँ से होकर जाता है। ये सब क्या है? ज्ञान।

मंज़िल की चाह ही नहीं है, और इतना बड़ा तुम्हें नक़्शा दे दें, तेल से भरी गाड़ी दे दें, तो क्या पहुँच जाओगे? नहीं।

यही दिक़्क़त है। नक़्शा भी बता दूँ, संसाधन भी बता दूँ, उपाय भी बता दूँ, श्रम किसे करना है पहुँचने का? और वो श्रम तुम ज्ञान के बूते नहीं कर पाओगे; वो श्रम तो तुमसे करवाएगा प्रेम ही। अब प्रेम ही न हो, गाड़ी बढ़िया खड़ी करके सोओगे कहीं पर — “गाड़ी बहुत अच्छी है। मस्त सीट है। चलो सो जाते हैं।”

गुरु गाड़ी है बिल्कुल।

ज़्यादातर लोग ज्ञान का यही करते हैं; ज्ञान इकट्ठा करके सो जाते हैं। कहते हैं, “बढ़िया चीज़ मिल गई है। अब सोते हैं इसी पर।” तो बढ़िया चीज़ तुम्हें दी किसलिए गई थी? कि उसका उपयोग करके मंज़िल तक जाओ। पर मंज़िल के लिए कोई चाहत ही नहीं। कुछ लोग और आगे के होते हैं, वो कहते हैं, “बढ़िया गाड़ी मिली है। चलो बेच ही देते हैं।”

तो ज्ञान के विक्रेता भी ख़ूब होते हैं। वो ज्ञान बेच-बेचकर के दुनिया की चीज़ें कमाते हैं।…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org