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क्या सामाजिक रह करके भी मन अपना रह सकता है?

जब तुम कहते हो कि क्या सामाजिक रह कर भी मन को काबू कर सकते हैं, तो तुम यूँ पूछते हो जैसे कि तुम्हारे पास कोई विकल्प है, जैसे कि दोनों रास्ते तुम्हें खुले हुए हैं कि मैं सामाजिक रह भी सकता हूँ और जब चाहूँ मैं समाज से कट भी सकता हूँ। ये विकल्प है क्या तुम्हारे पास? तुम्हें लगता ज़रूर है कि तुम समाज से हट जाओगे पर समाज से हटने के लिए जो चित्त चाहिए, जो मन चाहिए, जो हिम्मत और श्रद्धा चाहिए वो क्या है तुम्हारे पास? तुम अगर समाज में धसे हुए हो तो वो कोई चुनाव थोड़ी है। उसमें तुम्हारी कोई मुक्त इच्छा थोड़ी ही है, वो तो गुलामी है। इतने हद तक संस्कारित हो कि तुम्हारे पास अब कोई विकल्प है कहाँ।

तुम स्वयं समाज का उत्पाद हो और समाज का उत्पाद कह रहा है कि क्या मैं समाज की गिरफ्त से छूट सकता हूँ? समाज का उत्पाद समाज की जकड़ से नहीं छूट सकता। तुम्हें ही हटना पड़ेगा, तुम्हें ही मिटना पड़ेगा। जब तुम्हें प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि यह कैसा जीवन है, धकेला जा रहा हूँ, उदास हूँ, जो चाहता है वो मालिक बन बैठता है और हज़ार मालिक हैं, तब भीतर से एक गहरा अस्वीकार उठता है। यह अस्वीकार भी इसलिए उठता है क्योंकि गुलामी स्वभाव नहीं है तुम्हारा और आँख खोलते हो तो चारो तरफ बस गुलामी ही गुलामी दिखती है तो फिर असंतोष की ज्वाला उठती है कि ऐसे तो नहीं जीना। यह ज्वाला तुम्हारी बेड़ियों को बाद में गलाती है, पहले तुम्हें जलाती है। तुम्हारी बेड़ियाँ यदि गलनी हैं तो उस आग का इंधन तुम्हें खुद बनना होगा। तुम बचे रहे तो बेड़ियाँ भी बची रहेंगी।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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