क्या श्रीकृष्ण अर्जुन से हिंसा करवाते हैं?

हिंसा होती है अपूर्णता के भाव से कर्म करने में जहाँ तुम्हारे भीतर द्वैत उठा, जहाँ तुम्हें लगा — मैं अपूर्ण और सामने जो भी है वह भी अपूर्ण — और जहाँ तुम्हें लगा कि यह दोनों अपूर्ण मिलकर पूर्ण हो जाएँगे, तहाँ हिंसा हो गई। जहाँ तुमने अपनापन और परायापन देखा, वहीं हिंसा हो गई। जहाँ तुम्हें दो दिखे, वहीं हिंसा हो गई। अब दूसरे का, जैसा मैंने कहा, तुम गला काटो तो भी हिंसा क्योंकि गला काटा तो भी दूसरा, दूसरा था, और दूसरा दिख रहा है न तो तुम दूसरे से गले लगे तो भी हिंसा क्योंकि गले किससे लगे? दूसरे से। यह भी हिंसा।

कृष्ण कह रहे हैं — अधूरे तुम हो ही नहीं। तुम कृष्ण हो और कृष्ण क्या हैं? पूरे। “अर्जुन, तू अर्जुन है ही नहीं, तू आत्मा मात्र है, तू विशुद्ध सत्य है, अब लड़ और अब भूल जा कि तुझे विजय मिलेगी कि नहीं”। संपूर्ण गीता में मुझे दिखा दो कि कृष्ण कहाँ कह रहे हैं कि आवश्यक है विजयी होना; एक श्लोक दिखाओ। ज़ोर इस बात पर है ही नहीं कि अर्जुन तू राजा बन, जोर इस बात पर है ही नहीं की तू जीतेगा कि हारेगा, बहुत संभावना थी कि अर्जुन लड़ते-लड़ते हार भी जाता, दिवंगत हो जाता — कौरवों की सेना से एक चौथाई से ज़्यादा छोटी थी पांडवों की सेना। ऐसा समझ लो कि उधर अगर चार थे तो इधर तीन थे, बारह और सात! बहुत संभावना थी कि अर्जुन हार जाता, मारा जाता, लेकिन गीता यथावत रहती क्योंकि कृष्ण ने जो कहा उसका उद्देश्य जीत नहीं थी, उसका उद्देश्य था युद्ध, धर्मयुद्ध। धर्म के लिए जो भी उचित है तू कर। तुझे व्यक्तिगत रूप से ताज मिलेगा या नहीं, तू राजा बनेगा कि नहीं, मुकुट धारण करेगा या नहीं, यह बात ही नहीं है। बात…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org