क्या प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती?
प्रश्नकर्ता: आप बार-बार हमारे साधारण और सांसारिक प्रेम को झूठा सिद्ध करने में लगे रहते हैं। आप बार-बार कहते हैं कि हमारे प्रेम में कोई दम नहीं, हमारा प्यार कुछ असली नहीं। जब दुनिया के बड़े-बड़े ज्ञानी भी आज तक प्यार की कोई परिभाषा नहीं दे पाए तो आपको कैसे पता कि हमारा प्यार सच्चा है कि नहीं?
आचार्य प्रशांत: अच्छा तरीका है न? ये ईमानदारी से जाँचना भी नहीं है कि हम जिसको प्यार कह रहे हैं वो क्या है, उसमें कितनी असलियत है, कितना धोखा है, कितना शरीर है उसमें, कितना मन है और कितनी आत्मा है; इसकी कोई जाँच पड़ताल करनी नहीं है तो कह दो कि प्रेम की तो कोई सर्वमान्य, सार्वजनिक परिभाषा होती नहीं, तो फिर कोई भी चीज प्रेम कहला सकती है। ऐसे और भी कई बार सवाल आए हैं, टिप्पणियाँ आई हैं, जहाँ कहा गया है कि, “साहब! प्यार को अल्फाज में कुछ बोला नहीं जा सकता, प्यार तो सिर्फ एक एहसास होता है, एक अनुभूति होती है, एक फीलिंग होती है, और प्यार तो प्यार करने वाला ही जानता है, प्यार सबके लिए अलग-अलग होता है; तो आप क्यों फिर हमको चुनौती देते रहते हैं और परेशान करते हैं?” नहीं, ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि प्यार की कोई परिभाषा नहीं होती है। ये दो कौड़ी की शायरी से थोड़ा ऊपर उठोगे, द्रष्टाओं के पास जाओगे, ज्ञानियों के पास जाओगे, तो वो तुमको बताएँगे कि निश्चित रूप से प्रेम की परिभाषा होती है और बड़ी सरल परिभाषा होती है।
कई बार पहले भी उद्धृत कर चुका हूँ, पर जब भी मैंने बोला है तुमने शायद देखा नहीं होगा, क्योंकि दो तरह के वीडियोज होते हैं मेरे — एक वो जिनमें मैं संतों पर, शास्त्रों पर, ज्ञानियों पर और धर्म पर बोलता हूँ, वो वीडियोज तुम लोग देखना पसंद नहीं करते और दूसरे वीडियोज होते हैं जिनमें कि आम जनता के जो सामान्य मुद्दे होते हैं, जिनसे संबंधित वो सवाल पूछते हैं — उन पर मैं बोलता हूँ, उनको तुम खूब देखते हो।
तो वो जो असली और केंद्रीय आध्यात्मिक वीडियो हैं, उनको तुमने कभी देखा ही नहीं होगा। तो जो बात अब बोलने जा रहा हूँ, वो तुम्हें लगेगा पहली बार बोल रहा हूँ। पहली बार नहीं बोल रहा, दस बार बोल चुका हूँ।
प्रेम प्रेम सब कहें, प्रेम न जाने कोय। जा मारग साहब मिलें, प्रेम कहावे सोए।। ~गुरु कबीर
तो तुम में से जिन भी लोगों को ये गलतफहमी है कि प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती, वो इन पंक्तियों को अच्छे से समझ लें, दोहरा लें, रट ही लें, भीतर बस जाने दें, खून में बहने लगे — ऐसा कर लें।
‘प्रेम प्रेम सब कहें’ — ये हमारा हाल है, पूरी दुनिया का हाल है, जिसको देखो वही प्रेम-प्रेम कर रहा है, सब आशिक हुए पड़े हैं।
‘प्रेम प्रेम सब कहें, प्रेम न जाने कोय’ — लेकिन प्रेम जानता कोई नहीं है, क्यों?
इसलिए नहीं कि प्रेम जाना ही नहीं जा सकता, जैसा तुमने सवाल में कहा कि, “प्यार की तो कोई परिभाषा होती नहीं न। सिर्फ एहसास है ये, रूह से महसूस करो।” अब एहसास भीतर क्या हो रहा है वो भी पता नहीं, रूह तुम्हारी किसी ने देखी नहीं, तो तुम भी इस तरीके की बात का फायदा उठाकर कहते हो कि “प्यार तो सिर्फ एक एहसास होता है न, एक भीतर की भावना; तो हमें भी हो गया है।” नहीं, ऐसा नहीं है। जब कह रहे हैं ‘प्रेम ना जाने कोय’ तो आगे भी बात कही गयी है।
‘जा मारग साहब मिलें’ — जिस रास्ते पर चलके साहब, ‘साहब’ माने वो जो सबसे ऊँचा हो सकता है तुम्हारे भीतर, ‘’जा मारग साहब मिलें प्रेम कहावे सोए’। जिस रास्ते पर चलकर तुम जिंदगी की ऊँचाइयाँ हासिल कर सको, जिस रास्ते पर चलकर तुम वो बेहतर-से-बेहतर इंसान हो सको, जिस रास्ते पर चलकर तुम्हारी चेतना साफ-से-साफ और ऊँची-से-ऊँची जगह पर पहुँच सके, ‘प्रेम कहावे सोय’, उसको प्रेम कहते हैं। और बाकी ये इधर-उधर की जो हरकतें हैं — इसको पकड़ लिया, उसको छोड़ दिया; ये मिल गया हँस दिए, ये मिल गया रो दिए — ये प्रेम नहीं कहलाता है। तो प्रेम की परिभाषा निश्चित रूप से होती है। न जाने कहाँ से तुम लोगों ने ये ब्रह्म-वाक्य पकड़ लिया है कि ‘लव कैन नाॅट बी डिफाइंड ‘ (प्रेम परिभाषित नहीं किया जा सकता) — ये फिल्मी बातें हैं, इनसे बाहर आओ कि प्रेम की कोई परिभाषा नहीं होती; प्रेम की परिभाषा निश्चित रूप से होती है।
बस जिन्होंने जानकर, समझ कर परिभाषित किया, तुम्हारी जिंदगी में उनके लिए कोई जगह नहीं है। तुम ऐसी जिंदगियाँ जी रहे हो जिसमें इधर-उधर के छोटे-मोटे लेखक या वक़्ता हो गए, इन सब की बातों के लिए तो तुम्हारे जीवन में, मन में स्थान है। पर जो असली लोग थे, जिनके दम पर पूरा दर्शनशास्त्र खड़ा है, जिनके दम पर सारे धर्म खड़े हैं शताब्दियों से, जिनके धर्म पर पूरा अध्यात्म है, जिन्होंने इंसान को इंसान बनाया, उनसे तुम्हारा कोई परिचय नहीं, उनसे तुम दूर-दूर, कटे-कटे रहते हो तो फिर उनकी बात भी तुम्हें पता नहीं। फिर तुम इस तरह की अनाड़ीपने की बातें करते हो कि प्रेम की तो परिभाषा होती नहीं। और कितना झूठा है हमारा प्रेम, ये इसी से समझ लो कि आगे और कहा है —
छिन चढ़े छिन उतरे, सो तो प्रेम ना होय। अघट प्रेम पिंजर बसे, प्रेम कहावे सोए।। ~ गुरु कबीर
आया है अभी, और चला भी गया उसको प्रेम नहीं कहते। तो सीधी एक पहचान हो गई प्रेम की ये कि वो प्रेम जो हो गया वो प्रेम हो ही नहीं सकता। वो प्रेम जो आया है जीवन में, वो प्रेम नहीं हो सकता, कि तुम कहो कि फलाना व्यक्ति आया मेरे जीवन में तो मुझे प्यार मिल गया है, झूठी बात। या तुम कहो कि फलाना व्यक्ति मेरे जीवन से चला गया तो मेरा प्यार छिन गया, बराबर की झूठी बात।
प्रेम किसी घटना का, किसी व्यक्ति का नाम नहीं है। प्रेम किसी अफ़साने का, किसी कांड का, किसी अफेयर का नाम नहीं है। प्रेम तुम्हारी चेतना की मूल तड़प का नाम है। वो हमेशा से है तुममें, इसीलिए प्रेम आएगा नहीं क्योंकि तुम पैदा हुए उस तड़प के साथ। जब पैदा ही हुए हो उसके साथ तो फिर वो बाद में थोड़े ही तुम्हारे जीवन में प्रवेश करेगा, वो तो पैदा होने के क्षण से है। इसी तरीके से, मरते समय तक ज्यादातर लोगों में वो तड़प, बेचैनी बनी और बची ही रह जाती है। तो वो लगातार भीतर एक कशिश है, लगातार भीतर एक असमंजस की और ऊहापोह की और संशय की और अविश्राम की स्थिति है। जैसे भीतर कुछ घुटता सा रहता है, भीतर कुछ अपूर्ण है जो कह रहा है कि ठीक से जिया नहीं जा रहा, साँस नहीं आ रही, तकलीफ है भीतर — वो कहलाती है ‘विरह’। वो ही प्रेम का दूसरा नाम है।
हम सबको कुछ ऐसा चाहिए जो हमें शांत कर दे। हम सबको कुछ ऐसा चाहिए जो हमें एक आखिरी चैन तक, विश्राम तक पहुँचा दे, वो प्रेम है। ‘जा मारग साहब मिलें’ — जिस रास्ते पर चलकर के तुम अंतिम मुक्ति, शांति, ऊँचाई पा लो, उसका नाम प्रेम है।
ज़्यादातर तो जो हमारे रास्ते होते हैं जिनको हम प्रेम का रास्ता कहते हैं, ये तो छोड़ो उसपर शांति, मुक्ति मिलेगी, तुम्हारे जीवन में अगर थोड़ी-बहुत शांति होती भी है तो प्रेम के काण्ड करके उसको भी गँवा देते हो। एक आम आदमी जिसकी जिंदगी में प्रेम कहानियाँ ना हों वो तो हो सकता है तुमको थोड़ा बहुत शांत दिख भी जाए, पर जिसने एक बार किसी ऐसी कहानी का श्रीगणेश कर लिया, जैसा कहते हैं आम भाषा में कि टाँका भिड़ा लिया, वो तुमको शांत दिख जाए, अनुत्तेजित दिख जाए, चुपचाप, मौन, अपने आप में पूर्ण और ध्यानस्थ दिख जाए, इसकी संभावना बहुत कम है। इसकी संभावना कम इसीलिए है, क्योंकि आत्मज्ञान के अभाव में, अध्यात्म के अभाव में हमें कुछ पता ही नहीं है कि इन मूल शब्दों का अर्थ क्या है। जीवन के बारे में जानकारी मिल रही है फ़िल्मों से, या अपने ही जैसे दोस्तों-यारों से, या परिवार के लोगों से जो कि अपने आप में कुछ खास होशियार, जानकार हैं नहीं। तो हमें बड़े मौलिक संशय रह जाते हैं, हम बड़े अंधविश्वास में जीते हैं।
अंधविश्वास यही थोड़े ही है कि तुमने कोई जानवर देखा और तुम कहने लग गए कि ये जो जानवर है न, ये वो फलाने गाँव का कद्दू सिंह है और वो मर करके ये जानवर बन गया, यही भर थोड़े ही अंधविश्वास होता है। अंधविश्वास माने कोई भी ऐसी चीज़ मान लेना जो तुमने समझी ही नहीं है। अब तुम कह रहे हो कि ‘आई एम इन लव’ — मुझे प्यार हो गया है, और बिना जाने तुम बोल रहे हो कि तुम्हें प्यार हो गया है। तुम्हें पता भी नहीं कि वास्तव में हुआ क्या है भीतर — कुछ तो चल रहा है भीतर ही भीतर, सरसराहट सी मची हुई है तन में — पर पता नहीं है तुमको, हुआ क्या है! उसको जाने बिना तुम कह रहे हो कि हमें भी इश्क हो गया, ये भी अंधविश्वास है, बराबर का अंधविश्वास है। और ये अंधविश्वास खूब पढ़े-लिखे लोग भी पाल रहे हैं, खूब बुद्धिजीवी लोग भी पाल रहे हैं कि हमें भी प्यार हुआ है!
ये सब अंधविश्वास आत्मज्ञान के अभाव में हैं। देखो, दो तरह के अंधविश्वास होते हैं। एक बाहरी अंधविश्वास। वो भौतिक ज्ञान, सांसारिक ज्ञान, फिजीकल नाॅलेज के अभाव में होता है। है, न? जैसे कि कोई हो आदिवासी और उसको तुम यहाँ बुला लो शहर में, और वो रहता था शताब्दियों से किसी बीहड़ जंगल में, जहाँ किसी तरह की कोई वैज्ञानिक प्रगति, खोज कभी हुई नहीं। उसको तुम यहाँ बुला लो, उसके सामने टीवी चला दो और टीवी में से आवाज आने लगे, उसके पटल पर चित्र दिखने लगें, तो कोई बड़ी बात नहीं है कि वो जो आदिवासी है वो नाचने लगे, झूमने लगे या डर जाए या टीवी को ही प्रणाम करना शुरू कर दे। तो ये तो अंधविश्वास है। उसको लग रहा है कि टीवी के भीतर कोई बैठा है जो गाना गा रहा है। उसके सामने तुम रेडियो रखोगे और रेडियो में से गाना आ रहा है, तो वो घूमकर रेडियो के पीछे जाएगा, उसको लगेगा रेडियो के पीछे कोई बैठके गाना गा रहा होगा। और जब उसे रेडियो के पीछे भी कोई दिखाई नहीं देगा तो हो सकता है कि वो रेडियो को अपना कोई देवता इत्यादि घोषित कर दे। ये अंधविश्वास है, क्योंकि उसे सांसारिक ज्ञान नहीं है।
एक अंधविश्वास होता है भीतर का। भीतर का अंधविश्वास होता है जब तुम्हें भीतर का कोई ज्ञान नहीं होता। आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, आत्मज्ञान नहीं है। तुम कौन हो? मन तुम्हारा कहाँ से आता है, कहाँ को जाता है, कैसे चलता है? इसका तुम्हें कुछ पता नहीं। तब तुम्हारे जीवन में जो कुछ चल रहा होता है, तुम उसके बारे में ठीक वैसे ही भ्रांति में रह जाते हो जैसे कि वो आदिवासी टीवी के बारे में भ्रांति में रह जाता है। भ्रांति समझते हो न? — भ्रम में। वो आदिवासी समझ रहा है कि टीवी में जो हो रहा है, वो टीवी के अंदर कोई वास्तव में है। आदिवासी को संगीत सुनाई पड़ रहा है, वो सोच रहा है टीवी के अंदर वास्तव में कोई खूबसूरत लड़की गाना गा रही है। वैसे ही तुम्हारे भी भीतर कुछ हो रहा है। तुम्हें भी लग रहा है कि तुम्हारे दिल में वास्तव में है कोई लड़की जो गाना गा रही है; दोनों अंधविश्वासी हो। आदिवासी को ये नहीं पता कि टीवी में कोई लड़की नहीं बैठी। और तुमको! ना हृदय का, ना दिल का मतलब पता है, ना प्रेम का मतलब पता है, ना स्त्री पुरुष क्या हैं, और उनमें वास्तविक भेद क्या है, और आकर्षण क्या है — ये पता है। तो तुम्हें लग रहा है, दिल के भीतर लड़की बैठी है, गाना गा रही है; दोनों अंधविश्वासी हो। बाहर का अंधविश्वास मिटाने के लिए बहुत सारे विश्वविद्यालय हैं और संस्थाएँ हैं और विज्ञान ने खूब तरक्की कर ली है। अच्छी बात है, बाहरी अंधविश्वास मिट रहा है।
भीतर का अंधविश्वास मिटने की जगह और सघन होता जा रहा है हालाँकि हम इक्कीसवीं शताब्दी में बैठे हैं। वो ही जो भीतर का अंधविश्वास है वो हटे इसके लिए तुम्हारी संस्था लगातार प्रयास कर रही है, काम कर रही है। लेकिन भीतर का अंधविश्वास तभी हटेगा जब तुम आध्यात्मिक ग्रंथों के करीब आओगे। जब तुम एक तरफ तो ग्रंथों को पढ़ोगे और दूसरी तरफ अपने जीवन का ईमानदारी से और कड़ाई से अवलोकन करोगे, तब भीतर का अंधविश्वास हटता है।