क्या प्रकृति हिंसा से भरी हुई है? मनुष्य के लिए माँसाहार उचित है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ईश्वर को करुणा का सागर कहा गया है, परंतु दुनिया में हर तरफ़ हिंसा ही दिखाई देती है। जीवों की रचना में एक ओर तो हिरण है और दूसरी ओर शेर है। हिरण मासूम है फिर भी शेर उसे बहुत बुरी तरह मारकर खा जाता है। हिरण है तो रचना तो सुंदर है परंतु शेर जैसा हिंसक जानवर देखकर उसकी सुंदरता और करुणा समझ नहीं आती। कृपा मार्ग दर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: ये देखने का फेर है। मैं माँसाहार का धुर- विरोधी हूँ, मैं दूध पीने तक को मना करता हूँ, उसका मतलब ये नहीं है कि मैं जानवरों के एक वर्ग का हिमायती हूँ और दूसरे वर्ग का दुश्मन हूँ। तुम हटा दो सब शेर-चीते, तो तुम्हें क्या लग रहा है जंगल बचेंगे? और जब जंगल ही नहीं बचेंगे तो हिरण और ख़रगोश कहाँ से बचेंगे? हिरण, ख़रगोश आपको मासूम लगते हैं, मासूम वो हैं भी एक दृष्टि से, पर अगर शेर नहीं हैं और चीता नहीं हैं तो ये हिरण और ख़रगोश इतने हो जाने हैं कि जंगल ही नहीं बचेगा, और जंगल ही नहीं बचेगा तो ना जाने कितनी प्रजातियाँ ख़तम हो जाएंगी। तो ये तो फिर ख़रगोश ने बड़ी हिंसा कर दी; ख़रगोश के हाथों ना जाने कितनी प्रजातियाँ ख़तम होंगी। ये मत कह दीजिए कि ख़रगोश मासूम है और शेर गब्बर है। शेर भी मासूम है, ख़रगोश भी मासूम है, ये तो प्रकृति वाली मासूमियत है, इसमें क्या किसी को ज़िम्मेदार ठहराएँ।

वास्तव में ये जो शब्द है ‘मासूमियत’ या ‘इनोसेंस’, ये प्रकृति पर लागू होते ही नहीं। प्रकृति में तो मशीनें हैं; यंत्रवत काम चलता है, जो जैविक रूप से जैसा बना है जैनेटिकली, वैसा ही चलेगा। तो वहाँ किसी को क्या अच्छा, किसी को क्या बुरा बोलना। एक तरह की मशीन शेर है, एक तरह की मशीन ख़रगोश है। इनोसेंस या गिल्ट, इनोसेंस या करप्शन, निर्दोषता या दोष, ये शब्द सिर्फ मनुष्य पर लागू होते हैं। मनुष्य अकेला है जो निर्दोष कहा जा सकता है और मनुष्य अकेला है जो दोषी हो सकता है। शेर हिरण को मार दे तो दोषी नहीं कहलाया जा सकता। मनुष्य हिरण को मारेगा तो दोषी कहलाएगा क्योंकि मनुष्य के पास वो चेतना है जो जान सकती है और सही चुनाव कर सकती है। शेर के पास तो बस प्रकृति है और प्रकृति प्रदत्त संस्कार हैं। तो शेर चुनाव कर ही नहीं सकता, उसको दोषी क्या ठहरा रहे हो? हाँ, इंसान मारेगा अगर शेर को, चाहे हिरण को, चाहे ख़रगोश को, चाहे हाथी को, तो इंसान ज़रूर दोषी ठहराया जाएगा क्योंकि इंसान के पास विकल्प था। तुम चाहते तो नहीं मारते, पर फिर भी तुमने मारा, तुम दोषी हो। शेर को दोषी क्यों बोल रहे हो? और भूलना नहीं कि जंगल में सबका होना ज़रूरी है। वास्तव में कई ऐसे जंगल हैं जिनको पुनर्जीवन तब मिला जब उसमें शेर-चीते पुनः प्रविष्ट कराए गए। जब शेर-चीते पुनः आए तो वहाँ पर जो अन्य प्रजातियाँ थीं, घास-पत्ती खाने वाले पशुओं की, वो…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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