क्या अध्यात्म के माध्यम से अपने कामों में सफलता पाई जा सकती है?
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अध्यात्म इसीलिए थोड़े ही है कि तुम कुछ भी काम पकड़ लो और फ़िर अध्यात्म तुम्हारी सहायता कर दे उस काम को पूरा करने में। वो काम तुमने अध्यात्म से पूछकर चुना था क्या? जब तुमने अध्यात्म से पूछकर वो काम चुना नहीं, तो अब वो काम अटक रहा है, तो अध्यात्म से क्यों पूछ रहे हो?
तुम कोई भी काम चुन लेते हो अपने अहंकार से पूछकर, अपने अँधेरे से पूछकर, अपने संस्कारों से पूछकर, अपने अज्ञान से पूछकर। कोई भी काम चुन लेते हो। अब वो काम ही ऐसा चुना है कि उसमें पचास तरह की अड़चनें आएँगी ही आएँगी क्योंकि वो काम पैदा ही कहाँ से हुआ है? अँधेरे और अज्ञान से। फ़िर जब वो काम अटकने लग जाता है तो जाकर तुम किससे पूछते हो? अध्यात्म से।
“श्री हरि, मेरी बिगड़ी बना दो।” वो कहेंगे, “मैंने तो बिगाड़ी नहीं। तो मैं बना भी कैसे दूँ।”
क्या ये बोध तुमको अध्यात्म ने दिया है कि जिस काम को तुम करना चाह रहे हो वर्तमान में, वो काम वास्तव में करने योग्य है? ये तुम्हें किसने सिखाया?
ये तो तुम्हें समाज ने सिखाया। ये तो तुम्हें तुम्हारी प्रथाओं ने और मान्यताओं ने सिखाया कि फलाना काम तो ज़रूर करो। तो फ़िर उन्हीं से जाकर पूछो न, जिन्होंने तुमको अंधे कामों में ढकेल दिया है, अंधे व्यवसायों में, और अंधे सम्बन्धों में ढकेल दिया है। उन्हीं से पूछो, “तुमने हमें जिस तरह की ज़िंदगी दे दी है, उसमें पचास तरह की अड़चन आ रहीं हैं। अब बताओ जिएँ कैसे?”
भगवान से मत पूछो।
एक आए थे एक सज्जन। बोले, “ज़िंदगी बिलकुल बर्बाद है। शादी कर ली है। पत्नी के साथ ये समस्या, वो समस्या। या तो मैं दूर रहता हूँ, या सामने पड़ जाती है तो पचास तरह की लड़ाईयाँ। बच्चे हो गये हैं तीन। बच्चे भी बर्बाद हैं। सब कुछ बिलकुल खराब है। अब भगवान उपाय बताए इस सबसे बचने का।’ तो मैंने कहा, “जब ये सब कर रहे थे, तब क्या भगवान से पूछकर किया था? तो अब भगवान की कहाँ से ज़िम्मेदारी हो गई कि भगवान ही उपाय बताए, भगवान ही बाहर निकाले।
जब ये सब कर रहे थे, उस समय कोई आता और भगवान का नाम लेता, तो उसको तुम जूता मारते बहुत ज़ोर से। तुम कहते, “ये अभी हमारा बच्चा पैदा करने का समय है, तुम भगवान का नाम ले रहे हो। सारा मज़ा किरकिरा कर दिया।” उस समय तो भगवान तुमको फूटी आँख नहीं सुहाते और अब जब बर्बादी छा गई है, तो कहते हो, “भगवान! भगवान!” भगवान क्यों ज़िम्मेदारी लें भई?
अगर वास्तव में तुम आना ही चाहते हो भगवान की शरण में, तो तुम्हें बागडोर उन्हीं को सौंपनी पड़ेगी, मालकियत उन्हीं को देनी पड़ेगी। फ़िर वही फैसला करेंगे।
अध्यात्म इसीलिए नहीं होता कि…