कौन है गुरु? जो आदत से मुक्ति दिला दे।

आदत की बात है और कुछ भी नहीं है। जिसको आप कहते हैं मेरा जीवन, वो सिर्फ एक आदत है। एक लम्बी चौड़ी आदत। उसमें मिल कुछ नहीं रहा है, कोई शांति, कोई प्रेम नहीं है उसमें। बस आदत है। कुछ चीजें हैं-उनके प्रयोग की आदत है; कुछ चहरे हैं-उन्हें देखने की आदत है; कुछ विचार हैं-उन्हें सोचने की आदत है; बस आदत है। आदत में कोई सत्य तो होता नहीं। एक मनोस्थिति है। जब तक है तब तक बड़ी भारी लगती है, जब नहीं है तो कहोगे, “अरे! इसमें फँसे हुए थे? इसमें तो कुछ था ही नहीं, क्यों फँसे हुए थे?” आदत।

गुरु की एक बड़ी अच्छी परिभाषा हो सकती है। कौन है गुरु? जो आदत से मुक्ति दिला दे। आदतों को तोड़ दे, और याद रखना हर आदत के साथ तुम थोड़ा-थोड़ा टूटते हो। आदत यूँ ही नहीं जाती, क्योंकि तुम, और कुछ हो ही नहीं तुम सिर्फ आदतों के पिंड हो। तुम जिस भी बात को अपना कहते हो, जिसके साथ तुमने अपने आप को परिभाषित किया है, वो तुम्हारी एक गहरी आदत है। आदत के साथ तुम भी जाओगे। और तुम्हारे जाने का अर्थ है केंद्र की ओर वापस आना।

तुम कहते हो, “मैं आक्रामक हूँ”| ये आक्रमण ही हटना होगा। ये गया नहीं की तुम्हें मुक्ति मिलेगी। यही तो बोझ है तुम्हारा। तुम कहते हो तुम किसी के मोह में, लगाव में पड़े हो; बस वहीं, वहीं फँसे हो, उसी को जाना होगा। वो गया नहीं कि तुम मुक्त हो जाओगे। वही बीमारी है तुम्हारी। तुम कहते हो बड़े ज्ञानी हो, जान गए हो, दूसरों को बताने में बड़ा रस है तुम्हारा; वहीं, वहीं, वहीं चोट करनी होगी। ये आदत टूटेगी नहीं कि तुम मुक्त हो जाओगे। तुम कहते हो न! मैं तो एकांतवासी हूँ, ज़्यादा बोलता-चालता नहीं। मैं तो चुपचाप रहता हूँ, अन्तर्मुखी हूँ न! यही रोग है तुम्हारा, यही टूटेगा और मुक्त हो जाओगे।

अपनी मोटी-मोटी, सबसे बड़ी-बड़ी, आदतों को पहचान लो और निर्मम होके उन्हें तोड़ डालो। यही मोक्ष है, इसके आलावा और कुछ नहीं। लेकिन बड़ा मुश्किल होगा, खुद तोड़ पाना, क्योंकि तुम ही कौन हो? आदतों के पिंड। अब आदत, आदत को तोड़ दे, बड़ा मुश्किल होता है, इसलिए गुरु की ज़रूरत होती है, अपने करे तुम तोड़ नहीं पाओगे। ऐसी-सी ही बात है कि तुम कहो इस हाथ से कि अपने आप को हरा दें। तुम करोगे नहीं। न करने की तुम्हारी सामर्थ्य होगी, न इरादा। पहले तो इरादा ही नहीं बनेगा, इरादा कभी बन भी गया तो पाओगे कि सामर्थ्य नहीं है। गुरु इसीलिए चाहिए। प्यारा नहीं होता है गुरु। कसाई जैसा ज़्यादा होता है। क्योंकि उसका काम ही है, जो टायर अभी चल भी रहा है उसे भी पंक्चर करो। इसी टायर ने ही तो उम्मीद बाँध रखी है कि शायद बाक़ी दोनों भी ठीक हो जाएँ।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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