कोई खोट कहाँ तुममें, इसके अलावा कि बेहोश हो

एक निंदा होती है जिसमें हम सामने वाले के पूरे अस्तित्व को निंदनीय बना देते हैं। जहाँ हम कहते हैं कि तू ओछा है, छोटा है, निकृष्ट है। इस निंदा में हम भूल ही गए हैं कि वो जो तू है वो है क्या? और एक दूसरी निंदा भी होती है, जो राबिया, हसन की करती है। ये निंदा कहती है, “तू पूरा है, तू वही है जो मैं हूँ, तू भूल गया है।”

पहली निंदा गिराती है। पहली निंदा एक पहचान बनाती है कि मैं छोटा, कुपात्र, असमर्थ हूँ। दूसरी निंदा उठाती है। दूसरी निंदा आपको अहसास कराती है कि आप वो हैं नहीं जो आपको होना था। पहली निंदा ये बिल्कुल नहीं कहती कि तुम वो नहीं हो जो तुम्हें होना था। पहली निंदा कहती है तुम वही हो जो तुम्हें होना था, तुम्हें कीचड़ ही होना था। तुम कीचड़ ही हो। और इन दोनों स्थितियों में अंतर करना बिल्कुल `समझियेगा।

जब निंदा सुनने को मिले तो ज़रा ध्यान से देखियेगा कि निंदक कह क्या रहा है? निंदक यदि आपसे ये कह रहा है कि तुम तो हो ही नालायक, ओछे, गंदे, तो बचिये उससे। या, यदि वो आपके करीब भी है तो उसको बस एक उपाय की तरह देखिये। जैसा हमने कहा थोड़ी देर पहले कि कुछ तो होगा मुझमें जिसको देख के ये कुछ तो बोल रहा है। बिल्कुल ही कुछ न होता तो कुछ न बोल पाता।

और जो दूसरी निंदा हो, उसको साफ़-साफ़ समझिये। वो एक प्रकार की पुकार होती है। वो कहती है, “कोई खोट कहाँ तुममें, इसके अलावा कि बेहोश हो। कुछ गड़बड़ कहाँ तुममें, इसके अलावा कि जो हो, उसके अतिरिक्त कुछ और माने बैठे हो।” इन दोनों का भेद ठीक-ठीक समझियेगा क्योंकि रोज़-मर्रा के जीवन में स्थितियाँ आएँगी जब निंदा सुननी भी पड़ेगी और निंदा करनी भी पड़ेगी।

कोई कुछ ऐसा कर रहा है जो बिल्कुल पतित सा है, कोई कुछ ऐसा कर रहा है जो उसके लिए और बहुत और लोगों के लिए दुःख का कारण बनेगा। अब धर्म है आपका कि इस स्थिति में आप कुछ करें, आपको करना पड़ेगा। यही करुणा है, यही प्रेम है। कोई भ्रम में जी रहा है, फ़र्ज़ है आपका कि आप कुछ करें, उसके भ्रमों को तोड़ें। पर देखें कि उसके भ्रमों को तोड़ने में आपकी मानसिकता क्या हो रही है? आप उसको क्या कह कर के जगा रहे हो?

ठीक है, आप मारो उसे डंडा, पर डंडा मारते वक़्त आप क्या कह रहे हो उससे? कि तू नालायक है, या ये कि तू तो बहुत ही लायक है और मुझे अफ़सोस ये कि लायक होते हुए भी नालायकी कैसे कर गया? तेरी नालायकी इसी में है कि तू लायक होते हुए भी नालायकी। ये दोनों बहुत अलग-अलग दृष्टियाँ हैं, बहुत अलग-अलग दृष्टियाँ हैं। डंडा दोनों में पड़ रहा है, पर डंडा मरने वाले कि दृष्टि बहुत अलग-अलग है।

एक दृष्टि प्रेम की है, दूसरी दृष्टि घृणा की है। एक दृष्टि उठा देगी और दूसरी उसे बिल्कुल गिरा देगी। चोट डंडे की बराबर ही लगेगी।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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