कैसे पता चले कि साधक सही राह पर है?

दुख ही कसौटी है, सारे अध्यात्म का कुल एक ही लक्ष्य है, तुम्हें दुख से मुक्ति दिलाना। बंधन भी बुरे इसलिए हैं क्योंकि वो तुमको दुख देते हैं। आप जीवन में आध्यात्मिक रूप से कितने उन्नत है, उसको जानने का सीधा तरीका यही है कि देख लीजिए कि तड़प, बैचैनी, दुख ये सब जीवन में किस परिमाण में है। लेकिन ये देखना कई बार इतना सहज नहीं होता, वजह ये है कि हमने भाषा की चालाकी कर रखी है, हमने दुख को बड़े सुसज्जित, आभूषित नाम दे रखे है। दुख को दुख मानते नहीं, दुख के साथ हमने ऐसी धारणाएँ जोड़ दी है, जो दुख को करीब-करीब आवश्यक घोषित कर देती है, दुख के साथ गौरव जोड़ देती है और गौरव में सुख है। तो दुख के गौरव के नीचे, दुख दब जाता है इसलिए हमें पता नहीं लगने पाता की हम कितने दुख में है।

व्यक्ति कितने दुख में है ये जानने के लिए उसे अपने आप से बहुत ईमानदार होना पड़ेगा, उसे अपने आप से पूछना पड़ेगा, मैं जो सोच रहा हूँ, मैं जो कर रहा हूँ, मैं जैसे जी रहा हूँ, इसमें मजबूरी कितनी निहित है? अगर मेरे ऊपर कोई बाध्यता न हो, कोई ज़ोर न, कोई बल न हो, तो भी मैं क्या वैसे ही जियूँगा जैसे मैं जी रहा हूँ? हर व्यक्ति के ऊपर समय की बाध्यता है, सयोंग की बाध्यता है और स्थान की बाध्यता है।

कामनाओं की मौजूदगी ही बताती है कि जीवन में दुख है, आप अपने आप से पूछ लीजिए की भविष्य को लेकर के कितने अरमान है आपके पास, उससे आपको पता चल जाएगा। इसी तरीके से कामना का जो बड़ा रूप होता है वो है महत्वाकांक्षा, यही सब धोखे तो हम खुद के साथ कर-कर के छुपा ले जाते हैं बात को कि हम भीतर से तड़प रहे हैं।

मन अगर अभी पूरे तरीके से अपने केंद्र पर अवस्थित नहीं हुआ, आत्मस्थ नहीं हुआ, तो मन अभी असुरक्षित है, दुख उस पर लगातार आक्रमण करता रहेगा।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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