केन उपनिषद का क्या महत्व

आचार्य प्रशांत: केन उपनिषद है हमारे सामने। सबसे पहले तो ‘केन’ और ‘उपनिषद’, इसी में बहुत कुछ छिपा हुआ है। ‘केन’ शब्द का अर्थ क्या हुआ? केन शब्द का क्या अर्थ है?

“किसके द्वारा किया गया है ये सब?” किसके द्वारा? किसके द्वारा? ये उसी अर्थ में हैं जैसे हम कहते हैं हस्तेण, कि हाथ के द्वारा कुछ उठाया। किसके द्वारा? किसके द्वारा किया गया है ये सब? तो सवाल है। उपनिषद भी आ सके, उससे पहले क्या आया है? सवाल। सवाल न हो, तो उपनिषद का भी कोई सवाल ही नहीं उठता। आज भी हम यहाँ पर बैठे हैं तो क्यों बैठे हैं? किसी के मन में सवाल उठा। ठीक है? एक आदमी की जिज्ञासा थी, उसके फलस्वरूप अभी यहाँ पर पाँच-छह लोग बैठे हुए हैं। वो जिज्ञासा, सवाल, वो मूल में है, परमावश्यक। उसके बिना नहीं हो पाएगा। श्रद्धा नहीं है, विश्वास नहीं है, जिज्ञासा है, जानना है। उत्तर बाद में आते हैं, कई बार नहीं भी आते हैं, कई बार सिर्फ़ इशारे रहते हैं, लेकिन सवाल बड़ा स्पष्ट है, बिल्कुल स्पष्ट है। पहला ही सूत्र लेंगे, उसमें कितने सवाल हैं, उन्हें गिनेंगे। सिर्फ़ गिनती बता देगी कि सवाल साफ़ है, तीखे हैं, पूर्णतया केंद्रित हैं और जानने की पूरी कोशिश है। एकदम आतुर आदमी है कि जानना है। जब ये स्थिति होती है, तब उपनिषद का जन्म हो सकता है।

जब ये स्थिति होती है, जहाँ पर आप सवाल पूछने के लिए बेताब हैं, सिर्फ़ तभी उपनिषद का जन्म हो सकता है। उपनिषद शब्द में इतना तो छुपा हुआ है कि भई! साथ बैठे और साथ बैठने के फलस्वरूप एक प्रक्रिया घटी। उप-साथ, निषद-बैठे और साथ बैठने के फलस्वरूप एक प्रक्रिया घटी, उसी प्रक्रिया का नाम है उपनिषद। लेकिन कोई साथ बैठे ही क्यों अगर जिज्ञासा न हो? तो उपनिषद से पहले आती है-जिज्ञासा और शायद ये कहा जा सकता है कि अगर जिज्ञासा होगी, तो उपनिषद पैदा हो ही जाएगा, किसी भी तरीके से। अगर जिज्ञासा होगी तो उपनिषद का पैदा होना पक्का है। इधर नहीं तो उधर, किसी न किसी तरीके से, कोई मिल ही जाएगा, कोई स्थिति पैदा हो ही जाएगी। तो ‘केन’ है, वो शिष्य जो अब तैयार है, और उपनिषद है वो घटना जो उस तैयारी के फलस्वरूप घट रही है। ठीक है?

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षु: श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।

(केनोपनिषद, खण्ड १, श्लोक १)

हिंदी अनुवाद: किसके द्वारा प्रेरित किया हुआ यह मन अपने विषयों तक पहुँचता है? किसके द्वारा नियोजित किया हुआ यह श्रेष्ठ प्राण चलता है? किसके द्वारा प्रेरित की हुई वाणी को मनुष्य बोलते हैं? कौन सा अव्यक देव हमारे नेत्रों और कानों को कार्य में नियुक्त करता है?

अचार्य: किसने भेजा है मन को? मन बहुत सारे चक्कर चला रहा है। मन की दुनिया है, मन के रंग हैं, चारों तरफ मन ही मन का विस्तार दिख रहा है। पर मन का विस्तार किसने किया है? संसार, मन में समा जाता है ठीक है! समझने वाले इतना आसानी से समझ सकते हैं…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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