‘कृष्ण का ध्यान’ करने का क्या अर्थ है?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ‘कृष्ण का ध्यान’ करने का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: ध्यान माने क्या? ध्यान का शाब्दिक अर्थ भी तो यही होता है न कि किसी की ओर देख रहे हो लगातार; किसी से सम्पर्क नहीं टूट रहा है; किसी को लगातार धारण किये हुए हो। सत्य से लगातार सम्पर्क बनाये रखने को ‘ध्यान’ कहते हैं।

तो ध्यान का मतलब होता है शून्यवत हो गये, शून्य पर ध्यान है। किसी चीज़ पर ध्यान नहीं है। ध्यान का अर्थ हुआ सत्य पर ध्यान है और सत्य कोई चीज़ तो होता नहीं, तो बाक़ी सब चीज़ों से उचट गये, इसको ध्यान कहते हैं। जब बाक़ी सब चीज़ों से उचट जाते हो, जब सत्य के साथ ही तुम्हारा नाता बँध जाता है तब स्वयं सत्य निर्धारित कर देता है कि अब चीज़ों में से कौनसी चीज़ पर एकाग्र होना है तुमको।

हम उल्टी गंगा बहाते हैं। हम कहते हैं कि हम किसी चीज़ पर एकाग्र होंगे, तो उससे हम सत्य पर ध्यान कर लेंगे। ग़लत बात, बहुत ग़लत बात। समझ रहे हो?

जैसे ये समझ लो कक्ष है, इसमें बहुत सारी चीज़ें रखी हुई हैं, बहुत सारे लोग भी हैं, हम सोचते हैं कि यहाँ पर हम किसी बड़ी, किसी पवित्र चीज़ को पकड़ लेंगे तो उस विधि से, उस तरीक़े से ध्यान लग जाएगा। ऐसा नहीं होता। ध्यान का अर्थ होता है इसमें से कोई चीज़ मेरे लिए क़ीमती नहीं है। जब तुम कह रहे हो, ‘इसमें से कोई चीज़ मेरे लिए क़ीमती नहीं है’, तब तुम सत्य की अनुकम्पा के कारण ही ये कह पा रहे हो। और जो सत्य तुम्हें बता देता है कि वास्तव में हे अर्जुन! मेरे अतिरिक्त और कोई क़ीमती नहीं है, वही सत्य फिर तुम्हें ये बता देता है कि आसपास की चीज़ों के साथ अब करना क्या है।

देखो न, अर्जुन के साथ क्या हो रहा है? पहली चीज़, कृष्ण उसे क्या बता रहे हैं, ‘अर्जुन, बाक़ी सब मूल्यहीन है, मूल्य सिर्फ़ किसका है? मेरा। अर्जुन, मूल्य किसका है? सिर्फ़ मेरा।’ एक बात बताइए, अगर सिर्फ़ कृष्ण का मूल्य है तो फिर अर्जुन युद्ध को भी क्यों मूल्य दे? अर्जुन ये तर्क दे सकता है कि अगर क़ीमत सिर्फ़, हे केशव! आपके साथ रहने की है, तो आपके साथ तो मैं हूँ ही, अब युद्ध क्यों करूँ।

ऐसे ही चलता है, जब आप सत्य के साथ होते हो तब आप बाक़ी सब चीज़ों से हटकर सत्य के साथ हो जाते हो। तो सत्य आपको बता देता है कि अब बाक़ी सब चीज़ों के साथ आपको क्या व्यवहार करना है। सत्य बता देगा कि तीर छोड़ना है कि नहीं, और छोड़ना है तो किस पर छोड़ना है। दस लोग आपके सामने खड़े हैं, आप अगर सच को प्यार करते हो तो सच आपको बता देगा कि इन दस में से अब कौन आपको प्यारा होगा।

उल्टी धार मत चलाइएगा, ये मत कह दीजिएगा कि मैं इनमें से किसी एक के पास जाऊँगा। तो जिसमें मुझे सच दिखाई देगा, वो मेरे लिए माध्यम बन जाएगा सत्य तक पहुँचने का। ऐसा नहीं होता है। आप समझ रहे हैं? जीवन में भौतिक विषयों में आपको जो चुनाव करने होते हैं वो चुनाव तभी सही हो सकते हैं जब वो चुनाव आपके लिए, आपके बिहाफ़ पर (आपकी ओर से) कौन कर रहा हो? कृष्ण कर रहे हों।

तो आपने कहा, ‘मालिक मैं शरणागत हुआ, अब ये सब चीज़ें हैं जीवन में, आप देख लो।’ ये इतनी स्त्रियाँ हैं। सब प्यारी लगती हैं। कृष्ण बता देंगे वो वाली जो है न उसके पास जाना। सिर्फ़ कृष्ण तुम्हारे लिए सही चुनाव कर सकते हैं। और कृष्ण का जो चुनाव है वो कभी भी अकड़ा हुआ नहीं होता, ठहरा हुआ नहीं होता, जमा हुआ नहीं होता। अभी वो तुम्हें जो बता रहे हैं। इस बात की कोई आश्वस्ति नहीं है कि कल भी वही बताएँगे; कल बोलेंगे, उधर जाओ। वो मालिक हैं, आप अनुचर हो। उन्हें हक़ है अपना आदेश कभी भी स्थगित कर देने का, या बदल देने का।

ध्यान का अर्थ समझ गये? वस्तुओं पर मत ध्यान करिएगा, मन्त्रों पर मत ध्यान करिएगा। ध्वनियों पर, जापों पर, छवियों पर ध्यान मत कर लीजिएगा। ध्यान का तो अर्थ हुआ कि पहली बात मैं ये कह रहा हूँ, ये सब मूल्यहीन है। मूल्य किसका? बस इस बात का कि ये सब मूल्यहीन है। मूल्यहीन ही है ये सब, यहाँ से शुरुआत होती है, ये ध्यान की शुरुआत है।

हमें डर लगता है हम कहते हैं, ‘अगर हमने कह ही दिया कि ये सब मूल्यहीन है तो फिर जियेंगे कैसे?’ न। जब कह दिया कि ये सब मूल्यहीन है, तब आप मुक्त हो जाते हो उचित कर्म करने के लिए। क्योंकि अब कुछ भी नहीं है जो आपको बाँध रहा है। अब कुछ भी नहीं है जहाँ आपको लालच है, क्योंकि आपने पहले ही कह दिया कि ये सब तो मूल्यहीन है। तो आपको अब लालच नहीं खींच रहा है, अब आप निष्काम कर्म कर सकते हो।

मान लो आप न्यायाधीश हो तो आप निष्पक्ष निर्णय कब दे पाओगे? जब सामने आपके दो जो वादी-प्रतिवादी खड़े हों, आपका उनसे कोई लेना-देना न हो, तब तो आप दे पाओगे न निष्काम निर्णय?

तो जीवन जीने की यही कला है कि आप सही निर्णय, सही चुनाव तभी कर सकते हो जब आपका घटनाओं से कोई प्रयोजन ही न हो।

मैं बैठा हूँ जज के आसन पर, न्याय करना है मुझे, और मुझे इस बात से मतलब नहीं कि तुम कौन हो। अब जो न्याय करूँगा मैं, वो बिलकुल खरा होगा। हमें डर लगता है, हम कहते हैं, ‘अगर हमें कोई लेना-देना न हुआ तो फिर तो हम जंगल भाग जाएँगे न?’ वो जो न्यायाधीश होता है, वो जंगल भाग जाता है? जवाब दो।

उसके पास कोई पूर्वाग्रह नहीं होते, वो पहले से मन बना के नहीं बैठा होता, लेकिन फिर भी अपना काम तो कर रहा है न। उसके सामने इतने मुकदमे आते हैं दिनभर, इतनी सारी स्थितियाँ आ रही हैं, ठीक वैसे जैसे हमारे सामने आती हैं। उसे भी निर्णय करना होता है, उसे भी चुनाव करना होता है। इसके लिए क्या ज़रूरी है कि वो आसक्त हो जाए, मोह बाँध ले, पूर्वाग्रह ग्रस्त हो जाए? बोलो।

प्र: ठीक विपरीत।

आचार्य: ठीक विपरीत। वो जितना हल्का रहेगा, उसे जितना कम लेना-देना होगा किसी से, उतनी उसके निर्णय में धार होगी और उतना ही उसके निर्णय जल्दी हो पाएँगे, साफ़ हो पाएँगे। और उतना ही उसे निर्णय लेते वक़्त कम कष्ट और दुविधा होगी। कुछ लेना न देना, मगन रहना। हाँ भाई! तू अपनी बात बता, तू अपनी बात बता, हमने सुना और सुनते ही समझ गये। लोचा है भाई, उधर जाएँगे हम तो।

बात आ रही है समझ में? ये निष्काम कर्म है।

मेरे लिए तो सबसे बड़ी बात यही है कि मुझे ये न्यायाधीश की कुर्सी मिल गयी। मैं प्रतिनिधि हूँ कानून का। और जो न्यायाधीश होता है, जिन्हें आप आम न्यायालयों में देखते हैं, वो तो छोटे कानून का प्रतिनिधि होता है, कृष्ण हमसे कह रहे हैं, ‘तुम दुनिया के सबसे बड़े कानून के प्रतिनिधि बन जाओ।’ दुनिया का सबसे बड़ा कानून कौनसा है? वो कृष्ण का संविधान है।

‘तुम मेरे प्रतिनिधि बन जाओ और तुम्हारे सामने ये जो पूरा खेल चल रहा है, ये प्रकृति का खेल है। ये चल रहा है, तुम्हें इससे कोई लेना-देना नहीं, तुम्हें जो हासिल होना था हो गया। तुम्हें क्या हासिल होना था? तुम्हें मेरा प्रतिनिधित्व हासिल होना था, वो तुम्हें हासिल हो गया। अब इससे ऊँची बरकत और क्या होगी? अब और क्या पाओगे?’

आपने देखा है न्यायालयों में, न्यायाधीशों को हर तरह की सुरक्षा दी जाती है। उन्हें आसानी से हटाया नहीं जा सकता। उन्हें हर प्रकार के प्रलोभनों से मुक्त रखने के लिए व्यवस्था की जाती है। वो यही बात है कि अब संसार तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तुम्हें तुम्हारा मालिक मिल गया है; तुम्हारा मालिक एक है। कौन? कानून।

तो तुम्हें अब संसार से डरने की ज़रूरत ही नहीं है, तुम तो खुल कर के न्याय करो। तुम डरो ही मत कि वो आकर के कहीं तुम्हारी बदली न करा दे, वो आकर के कहीं तुम्हें कोई चोट न पहुँचा दे। तुम्हें पूरी सुरक्षा दी जाएगी, कानून का हाथ है तुम्हारे ऊपर, अब तुम जाओ और खुल कर के न्याय करो।

कृष्ण का ऐसा ही है। ये कृष्णा का हाथ है तुम्हारे ऊपर, अब कोई तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकता। कोई तुम्हें कुछ दे नहीं सकता, तुम अब जाओ और खुलकर के खेलो। कृष्ण का हाथ है तुम्हारे ऊपर कोई छवि मत बना लेना कि किसी बड़े आदमी का हाथ है। कृष्ण का हाथ है तुम्हारे ऊपर इसका इतना ही अर्थ होता है व्यावहारिक तौर पर कि तुम इस बात से मुक्त हो जाओ कि तुम्हें अपने ऊपर किसी का भी हाथ चाहिए। तुम इस डर से मुक्त हो जाओ कि तुम्हें अपने ऊपर कोई सरताज, कोई माइ-बाप चाहिए। गॉडफ़ादर (धर्म-पिता) की हमें जो आवश्यकता होती है, उस आवश्यकता को तुम त्याग दो।

हमें नहीं चाहिए किसी का हाथ। कृष्ण का वरदहस्त है, और किसी की छाया लेकर करेंगे क्या? जानते हो न हम किसके आदमी हैं। कोई पूछे कहाँ से आये हो? ‘जानते हो हम किसके आदमी हैं? कन्हैया।‘ डर ही जाएगा, ‘कन्हैया! ये मथुरा तरफ़ का लगता है।‘ हाँ, उधर मथुरा-वृन्दावन तरफ़ का ही है पर ग्लोबली (वैश्विक) चलती है उसकी।

(श्रोतागण हँसते हैं)

कहीं भी पहुँच जाओ, वहीं पकड़ है उसकी। कानून के हाथ लम्बे होते होंगे, कन्हैया को तो पकड़ने के लिए हाथों की ज़रूरत ही नहीं होती, वो बिना हाथ के पकड़ लेता है, वो भीतर से पकड़ता है। कानून तो आकर हाथ में हथकड़ी लगाएगा; कन्हैया, दिल पकड़ लेता है, दिलकड़ी। हम कन्हैया के गुर्गे हैं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org