कृष्ण — अर्जुन के गुरु भी, सखा भी

प्रश्नकर्ता: विद्यार्थी ही हूँ, या शिष्य हो गया हूँ?

आचार्य प्रशांत: विद्यार्थी से शायद इनका तात्पर्य है ज्ञानार्थी, जो ज्ञान का इच्छुक हो और शिष्य से इनका अर्थ है शायद वो जो समर्पित हो गया हो।

तो पूछ रहे हैं कि “आचार्य जी, मैं अभी विद्यार्थी, ज्ञानार्थी ही हूँ, या समर्पित शिष्य हूँ, ये कैसे पता लगे?”

ये ऐसे पता लगे कि अगर मैं इस सवाल का जवाब न दूँ, और तुम्हें बुरा लग जाए, तो तुम ज्ञानार्थी हो और अगर मैं जवाब न दूँ, और तुम कहो कि जवाब नहीं दिया तो अच्छा ही किया होगा, तो तुम शिष्य हो।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। ‘गुरु’ शब्द भारी-सा लगता है, एक दूरी-सी बनी रहती है। क्या गुरु सखा भी हो सकता है?

आचार्य: हो तो सब कुछ सकता है, पर तुम उसे सखा बनाकर करोगे क्या? जब हम सखा बनाते हैं तो ये थोड़े ही करते हैं कि सखा अगर आठवीं मंज़िल पर है तो आठवीं मंज़िल पर चढ़ जाएँ। जब हम सखा बनाते हैं तो हम कहते हैं कि “सुन, भाई, मैं पहली मंज़िल पर हूँ, तू नीचे आ जा।”

एक आदमी और उसका नौकर ट्रेन से जा रहे थे। मालिक का टिकट था पहले दर्जे का और नौकर का टिकट था तीसरे दर्जे का। तो मालिक ने नौकर से कहा कि “देख, भाई, दूरी अच्छी नहीं। हम एक साथ यात्रा करेंगे।” नौकर तत्काल बोला, “अरे नहीं, मालिक। आप तीसरे दर्जे में कहाँ चलेंगे?”

हम सब वैसे ही हैं, हमें ये ख़याल भी नहीं आता कि हम उठ सकते हैं और मालिक से साथ पहले दर्जे में यात्रा कर सकते हैं। मालिक अगर कह भी दे कि “हम आ रहे हैं…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org