कूटस्थ और अन्तर्यामी क्या हैं?
आचार्य प्रशांत: फ़िर पूछते हैं, “कूटस्थ और अंतर्यामी क्या हैं?” ध्यान दीजिएगा।
कूटस्थ शब्द जितना सुंदर है, जितना विभूतियुक्त है, उतना ही रहस्यमई भी है। ‘कूट’ शब्द ही एक-दूसरे से जुड़े हुए कई अर्थ रखता है। कूट का एक अर्थ होता है आधारभूत, प्रतिष्ठा — वो जिसके ऊपर सब कुछ प्रतिष्ठित या आधारित हो। वो जो मूल हो, वो जो बुनियादी हो, उसको कहते हैं कूट।
इसके ठीक विपरीत और इससे बिलकुल मिला-जुला अर्थ है कूट का — वो जो उच्चतम हो, जो शीर्षस्थ हो। जैसे जब आप कहते हैं चित्रकूट, तो उससे आपका आशय होता है पर्वत-शिखर। और कूट का एक अर्थ वो भी होता है कि ऐसी वस्तु जो वैसी ना हो, जैसी वो बाहर से दिखाई देती हो; ऐसी वस्तु जो बाहर से विशेषकर प्रिय दिखाई देती हो पर भीतर से दोषपूर्ण हो। तो माया को भी कूट कहते हैं।
तो कूटस्थ माने फ़िर क्या हुआ? कूटस्थ माने हुआ कि ये जो पूरी राशि है समस्त जगत की, संसार की, ब्रह्मांड की, ये जिस आधार पर खड़ी हुई है, सत्य उसका नाम है। सत्य संसार-रूपी पर्वत-राशि की आधारशिला है। जब कहा जाए कि आत्मा कूटस्थ है तो इसका मतलब है कि ये जो पूरी दुनिया है, ये तो मिथ्या है, पर इस दुनिया के आधार में जो सत्य है, वो आत्मा है। जगत की राशि मिथ्या है, जगत का आधार आत्मा है। जब इस अर्थ में आत्मा को संबोधित या इंगित करना होता है तो हम कह देते हैं, “आत्मा कूटस्थ है।”
दूसरी ओर, जब हमें ये कहना होता है कि इस जगत में ये जितनी भी राशि हैं, वो सब इसलिए हैं ताकि अंततः तुम उसका आरोहण, अतिक्रमण, उल्लंघन करके उसके शीर्ष पर पहुँच जाओ, तो हम कह देते हैं कि सत्य कूटस्थ है, इस अर्थ में कि वो इस जगत का सर्वोच्च लक्ष्य है और शिखर है, ये दूसरी बात।
और तीसरे अर्थ में, जब कूटस्थ हम कहते हैं तो उसका मतलब होता है कि बाहर-बाहर से ये जो दुनिया है, बाहर-बाहर से ये जो पूरी माया है, ये जैसी प्रतीत हो रही है, इसके पीछे जो है, वो कूटस्थ आत्मा है। यहाँ पर कूट का अर्थ है दोष।
समस्त दोषों के नीचे जो निर्दोष है, उसको सत्य कहते हैं। समस्त दोषों के नीचे, और पीछे और ऊपर जो है, उसको सत्य कहते हैं। तो कूट या कूटस्थ जब कहा जाए वेदान्त में सत्य को, तो उसके ये तीन अर्थ हुए — वो जो सबसे नीचे है, वो जो सबसे ऊपर है, और वो जो पीछे है — ऊपर, नीचे और पीछे। इन तीनों ही अर्थों में कूटस्थ का प्रयोग होता है। लेकिन जो सबसे ज़्यादा प्रचलित अर्थ है कूटस्थ का, वो ‘आधार’ है। क्या? आधार। सत्य जगत का आधार है।
तो सामान्यतया जब आप पढ़ेंगे कि आत्मा कूटस्थ है, तो उसका मतलब यही हुआ कि आत्मा अचल है, अटल है, अपरिवर्तनीय है और आधारभूत है, प्रथम है — ये अर्थ होगा कूटस्थ का। ठीक है?
अब आइए ‘अंतर्यामी’ पर। अंतर्यामी को उपनिषद् भी ऐसे समझाते हैं कि सत्य या आत्मा वैसे ही अंतर्यामी हैं जैसे माला में मोतियों के बीचों-बीच धागा होता है। उस धागे का मूल्य क्या है? उसका स्थान क्या है?
वो धागा, पहली बात, दिखाई नहीं देता, तो जो अंतर्यामी है, वो दिखाई नहीं देगा। दूसरी बात, वो धागा ना हो तो उन मोतियों की जो सुंदर, सुरुचिपूर्ण व्यवस्था है, वो चल नहीं सकती। तो अंतर्यामी कौन हुआ? जो भीतर-ही-भीतर बैठकर के बाहरी व्यवस्था का निर्वाह कर रहा है। तीसरी बात, आप मोतियों को देखते हैं बाहर से, और मोतियों के केंद्र से जो धागा गुज़र रहा है, वो मोतियों को कहाँ से देखता है? अंदर से। आपको मोतियों की क्या दिखाई देती है? सतह। और धागे को क्या दिखाई देता है? मोतियों का अंतःस्थल। मोती भीतर से कैसा है, ये धागा जानता है। ठीक?
तो अंतर्यामी वो जिसको इस संसार की केंद्रीय असलियत का ज्ञान हो। याम का अर्थ होता है जगत। अंतर्यामी माने जो भीतरी जगत में वास करता है। तो जो भीतर बैठकर के भीतर की सब सच्चाई जानता है, उसको बोलते हैं अंतर्यामी।
समझ में आ रही है बात?
अगली बात, मोतियों के किस स्थान पर बैठा हुआ है वो धागा? मोतियों के बिलकुल हृदय में बैठा हुआ है धागा। तो इस संसार के हृदय में जो बैठा हुआ है; आपके हृदय में बैठा हुआ है मोती, वो आपको बहुत लुभाता है, ललचाता है, और मोती के हृदय में कौन बैठा है? धागा। तो संसार में जो कुछ भी आपको मूल्यवान लगता है, उस मूल्यवान को जो मूल्यवान लगता है, उसका नाम है अंतर्यामी।
आपको कौन मूल्यवान लगता है? मोती। और मोती के हृदय में कौन बैठा है? तो आपको जो मूल्यवान लगता है, उसको जो मूल्यवान लगता है, उसका नाम है अंतर्यामी।
अब शायद बताने की ज़रूरत तो नहीं है न कि कूटस्थ और अंतर्यामी एक ही तत्व को निरूपित करने वाले दो नाम हैं? तो कूटस्थ कहो, कि अंतर्यामी कहो, इनका प्रयोग आत्मा के लिए ही होता है। बस जब आपको केन्द्रीयता दिखानी होती है आत्मतत्व की, तो आप कह देते हो अंतर्यामी और जब आपको आत्मतत्व की अवशिष्टता दिखानी होती है, तो आप कह देते हो कूटस्थ।
अवशिष्टता क्या है? जो हमने कूटस्थ में चर्चा करी, उसमें ये बात रह गई थी।
सर्वसार उपनिषद् भी कूटस्थ को ऐसे ही परिभाषित करता है, कहता है, “जब सब कुछ चला जाए, उसके बाद भी जो अवशेष-रूप में अमिट रह जाए, उसको कहते हैं कूटस्थ।“
समझ में आ रही है बात?
“ब्रह्मा से लेकर पिपीलिका (चींटी) पर्यंत समस्त जीवों की बुद्धि में वास करने वाला और स्थूल आदि शरीरों के विनष्ट हो जाने पर भी जो अवशिष्ट दिखाई देता है, उसे कूटस्थ कहते हैं।“ — सर्वसार उपनिषद्, श्लोक १०
“कूटस्थ आदि उपाधियों के भेदों में स्वरूप (प्राप्त करने के) लाभ के निमित्त जो आत्मा समस्त शरीरों में, माला (के मनकों) में धागे की तरह पिरोया हुआ प्रतीत होता है, उसे अंतर्यामी कहते हैं।“ — सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ११
ठीक है?
तो कूट तो सब दोषपूर्ण है। कूट माने? ये जो माया या प्रकृति की सब विपुल राशि है। ये तो सब समय के प्रवाह में है, ये तो जाएगी, लेकिन कूट बचा रह जाएगा, आधार बचा रह जाएगा। कूट माने माया नहीं बची रह जाएगी, जो ‘आधार’ अर्थ में कूट है, वो बचा रह जाएगा। सबके चले जाने पर भी जो बचा रह जाता है, उसे कहते हैं कूटस्थ।
ये अवशिष्ट शब्द या अवशेष शब्द कुछ याद दिला रहा है औपनिषदिक संदर्भ में? क्या याद दिला रहा है? अवशेष शब्द कुछ याद दिला रहा है उपनिषदों के संदर्भ में? “पूर्ण से पूर्ण को निकाल देने पर भी पूर्ण का ही अवशेष बचता है।” यहाँ पर उन्हीं अमर मंत्रों की गूँज हमें पुनः सुनाई दे रही है — “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते; पूर्ण ही शेष बचता है।”
तो सब कुछ चले जाने पर भी जो शेष बचे, उसे कूटस्थ कहते हैं। सबके मिट जाने पर जो बचता है, अगर वैसे याद करना है सत्य को, तो कहना कि सत्य कूटस्थ। और ये सब कुछ जो बना हुआ है, जो प्रतीत होता है, इसके हृदय में जो वास करता है, अगर ऐसे कहकर याद करना है सत्य को, तो कहना कि सत्य अंतर्यामी है। वो निर्भर करता है कि तुम उसको याद कैसे करना चाहते हो। ठीक है?