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कुविचार और सुविचार क्या हैं?
जिस प्रकार हवा से पैदा की गई आग उसी हवा से बुझ जाती है, उसी प्रकार जो कल्पना से पैदा हुआ है, वो कल्पना मात्र से ही मिटाया जा सकता है।
— योगवासिष्ठ सार
आचार्य प्रशांत: चिंगारी को ज़रा हवा देते हैं तो आग भड़क जाती है और चिंगारी को फूँक देते हैं तो आग बुझ जाती है। दोनों ही स्थितियों में काम किसने किया? हवा ने किया। तो उसका दृष्टान्त बनाया है।
जो कल्पना से आया है, उसे कल्पना मात्र से ही मिटाया जा सकता है। आज जितनी हमने बातें की हैं, वो सारी बातें आ करके इस दृष्टान्त में समा जाती हैं। ये हमें बता रहा है कि कल्पना और कल्पना में भेद होता है। बात यह नहीं है कि तुम कल्पना कर रहे हो कि नहीं, बात यह है कि किस केंद्र से कर रहे हो।
हवा और हवा में अंतर है। एक हवा आग लगा देगी, दूजी हवा आग बुझा देगी। विचार और विचार में अंतर है, बुद्धि और बुद्धि में अंतर है, मन और मन में अंतर है।
बहुत मिलते हैं जो कहते हैं कि किसी तरीके से निर्विचार दे दें। मैं कहता हूँ, ये कुविचार है। तुम तो यह मनाओ कि तुम्हारा कुविचार सुविचार में बदल जाए। तुम यह जो निर्विचार माँग रहे हो, यह कुविचार है। तुम तो यह माँगो कि विचार पर आत्मा का वरदहस्त रहे।
जब विचार आत्मा को छुए रहता है तो वो सुविचार होता है। जब विचार आत्मा से दूरी बनाए है, सत्य से, गुरु से दूरी बनाए है, तो वो कुविचार है।
अब माँग निर्विचार रहे हो, और देख नहीं पा रहे हो कि ये जो विचार है निर्विचार माँगने का, ये वास्तव में कुविचार है। जितनी बातें हम करते हैं और ग्रंथों ने जो कुछ कहा आपसे कभी भी, वो सारी बातें मृत्यु के साथ मिट जाती हैं। मृत्यु तो बहुत दूर की बात है, आप सो भी जाते हो तो वो सारी बातें विलीन हो जाती हैं। सोने का भी क्यों नाम लें? आप जाग्रत भी हो पर मुक्त हो गए, बुद्ध हो गए, कबीर हो गए, तो आप ग्रंथों से आज़ाद हो जाते हो। मतलब क्या है इस बात का? मतलब इसका है कि ग्रन्थ भी जो कह रहे हैं, वो बात नित्य नहीं है। नित्यता का पैमाना क्या होता है? नित्यता की कसौटी क्या है? जो कभी भी विलुप्त न हो, जो कभी मिटे न सो नित्य।
तुमने ग्रंथों में जो पढ़ा, जो स्मृति रूप में तुम्हारे पास है, या बोध कह लो, जो भी तुम उसको अपना नाम दो, वो तुम्हारी मौत के बाद बच रहा है क्या? गया। तुमने ग्रन्थ में जो पढ़ा, वो तुम्हारी नींद में तुम्हारे साथ है क्या? और मौत और नींद की हमने कहा कि बात करने की ज़रूरत नहीं है। तुमने ग्रंथ में जो पढ़ा, वो तो तब भी वाष्पीभूत हो जाता है जब तुम बुद्ध हो जाते हो।
कबीर से कोई पूछे तो वो यही कहेंगे कि, “हमें ग्रंथों से कोई बहुत मतलब नहीं है।” कृष्णमूर्ति खुलेआम बोलते थे, “हमने तो कुछ पढ़ा ही नहीं।” ग्रंथ खुद कहते हैं: “हमें पढ़ लो, समझ लो, फ़िर हमें ढोए-ढोए मत फिरना, छोड़ देना। पढ़ लिया, समझ लिया, काम हो गया न? अब छोड़ दो।”