कुछ लोग राष्ट्रवाद को बुरा क्यों मानते हैं?

राष्ट्र के केंद्र में हमेशा एक साझी पहचान होती है, वो साझी पहचान आमतौर पर क्या हो जाती है? पंथ, मज़हब, बोली, खानपान, आचरण, ये सब हो जाती है न? या जातीयता। राष्ट्र के केंद्र पर जो साझी पहचान होती है, शेयर्ड आइडेंटिटी, वो आमतौर पर ये हो जाती है — इसीलिए राष्ट्रवाद गड़बड़ चीज़ है। लेकिन एक अलग तरह का राष्ट्रवाद भी हो सकता है, जब एक जनसमुदाय बोले कि हम एकसे इसीलिए हैं क्योंकि हमें सच्चाई पर चलना है। वो भी एक राष्ट्र ही कहलाएगा। वो भी एक नेशन ही होगा। इसीलिए एक सोच ये भी रही है कि अगर धर्म को स्थापित होना है — भई, धर्म का पालन करने वाले लोगों के अलावा धर्म तो कुछ होता नहीं — तो उस धर्म के अनुयायियों को एक राष्ट्र मानना ही चाहिए। और अगर फिर उनको धार्मिक आधार पर जीवन जीना है तो उस राष्ट्र को राज्य भी बन जाना चाहिए। अन्यथा धर्म आगे नहीं बढ़ सकता। बात समझ रहे हो?

ये एक अलग तरह का राष्ट्र है। ये वो राष्ट्र है जो कह रहा है कि हम लोग इसीलिए नहीं इकट्ठा हैं कि तू काला, मैं काला, तू गोरा, मैं गोरा, तू भूरा, मैं भूरा। हम इसीलिए भी नहीं इकट्ठा हैं कि एक पर्वत के उस तरफ तू रहता है, एक पर्वत के इस तरफ हम लोग रहते हैं। पर्वत के इस तरफ जो हम लोग रहते हैं, हम अलग लोग हैं; उधर जो रहते हैं वो अलग लोग हैं। या तुम्हारी भाषा दूसरी है, हमारी भाषा दूसरी है। हम इसीलिए नहीं अलग हैं। हम देखो इसीलिए अलग हैं क्योंकि हम कुछ लोग हैं जिन्होंने अब तय कर लिया है कि हमें तो जीवन सच्चाई को समर्पित करना है। और बड़े खेद की बात है कि वो जो तुम बाकी लोग हो, तुम ये बात मान नहीं रहे हो। तुम जो बाकी लोग हो, तुम कह रहे…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org