किस कर्तव्य का पालन करें, और किसका नहीं?

कर्म का अर्थ है जो तुम करते हो, कर्तव्य माने वो कर्म जो तुम्हें करने लायक लगता है, अब हर व्यक्ति वही कर रहा होता है जो उसे करने लायक लगता है तो ले-दे कर अपनी दृष्टि से सब अपने कर्तव्य का ही पालन कर रहे हैं। कर्तव्य की जो हमारी अवधारणा है वही वो जाल है जिसमें हम फँसे हुए हैं। हमें लगता है ये चीज़ तो हमें करनी ही चाहिए, तुम्हें कैसे पता कोई चीज़ तुम्हारा कर्तव्य है?

आधे कर्तव्य हमारे आते है अज्ञान से और बाक़ी आधे कर्तव्य हमारे आते है स्वार्थ से, उनको हम बोल तो रहे होते है कर्तव्य पर वो होते है हमारा व्यापार।

कर्तव्य की बात वही करते हैं जिन्होंने भीतर जा कर के मेहनत से, ईमानदारी से, निर्भयता से, अपने आप से ये पूछा ही नहीं होता है कि फलानी चीज़ मेरा कर्तव्य बन कैसे गई? ये किसने तय कर दिया कि ये काम मुझे करना ही चाहिए?

उन कर्मों का त्याग तो करो ही जो तुमको समाज ने सीखा दिए हैं, उन कर्मों का त्याग तो करो ही जो तुम्हें तुम्हारे स्वार्थों ने सीखा दिए हैं। रामगीता आगे जाकर कहती है कि तुम उन कर्मों का भी त्याग कर दो जो तुम्हें वर्ण-आश्रम व्यवस्था ने सीखा दिए हैं, यहाँ तक कि वैदिक कर्म-काण्ड ने सीखा दिए हैं।

तुम्हारा हर कर्म तुम्हारे कर्ता की अपूर्णता से निकल रहा है तो फिर वो कर्म कर्ता को पूर्णता कैसे दे जाएगा? किसी पेड़ से उगा हुआ फल, उस पेड़ की प्रकृति को तो नहीं बदल सकता न या बदल सकता है? कोई कर्म कर्ता को बदल नहीं सकता, जब कर्ता ही गलत है तो कोई भी कर्म करते रहो फ़ायदा क्या होगा?

अक्सर जब आपके भीतर ग्लानी की भावना उठती है, लज्जा की भावना उठती है, तो वो इसलिए उठती है क्योंकि आपके भीतर ये संस्कार भर दिए गए हैं कि अगर तुम अच्छे आदमी हो तो तुम इस-इस तरह के काम करोगे ही करोगे और उस भावना ने हमको बड़े ज़बरदस्त तरीके से जकड़ लिया होता है। उस भावना के कारण हम आँखों देखी मक्खी निगल जाते है। आपको भली भाँती पता है कि सामने जो आपके रखा है वो सड़ा-गला ज़हरीला है लेकिन आप फिर भी उसको खाए जाओगे क्योंकि आपमें ये भावना स्थापित कर दी गई है कि उस चीज़ को खाना आपका कर्तव्य है।

ज्ञान मार्ग का अर्थ ही यही है कि तुम कर्ता को जान लो, वही तो आत्म है, आत्मा का तो कोई ज्ञान होता नहीं। जब तुम कर्ता को जान लोगे तो तुम कूद-कूद कर कर्ता को बिल्कुल विक्षिप्त कर्म करने की अनुमति कैसे दे दोगे? और तुम कर्ता के कर्मों के साथ फिर तादात्म्य कैसे बैठा लोगे? तुम जान गए कि भीतर जो कर्ता बैठा है, वही नकली है, अब तुम कैसे कह दोगे कि मैं ही कर्ता हूँ?

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org