किसी लक्ष्य, किसी योजना पर चल नहीं पाते
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प्रश्नकर्ता: हमें सब पता होता है कि हमारे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है, हमें जीवन में आगे बढ़ने के लिए क्या करना है, मगर फिर भी हम वो नहीं कर पाते। हर बार एक नया लक्ष्य तय करते हैं, नया जोश होता है, नई प्लानिंग (योजना) करते हैं मगर कुछ दिन या देर बाद यह सब फिर से जस-का-तस हो जाता है। ऐसा मेरे साथ कई सालों से हो रहा है। कुछ थोड़ी बहुत सफलता तो मिली है लेकिन उच्चतम स्तर तक अभी नहीं पहुँच पाया हूँ। कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: कौन हैं? किनका है? (प्रश्नकर्ता कुछ देर बाद हाथ उठाते हैं) तुम सवाल की ही ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं हो तो ज़िन्दगी की कैसे लोगे?
सवाल अपना मानस पुत्र होता है, उसको लावारिस नहीं छोड़ते। जिन लक्ष्यों को आज तक बनाया, उनकी ज़िम्मेदारी ली थी? ली होती तो छोड़ कैसे देते, या बस ऐसे ही लावारिस पैदा कर दिए थे?
प्रेम में जो कुछ आता है व्यक्ति कृतज्ञ अनुभव करता है उसकी ज़िम्मेदारी लेने को। और दबाव में और भ्रम में जो कुछ आएगा तुम काहे उसकी ज़िम्मेदारी लेना चाहोगे भाई! यूँ ही कोई लक्ष्य बन गया इधर-उधर के प्रभावों के कारण, मन की किसी लहर के चलते कोई उद्देश्य बना लिया तो तुम उस उद्देश्य के साथ इंसाफ करोगे नहीं क्योंकि तुम उसके साथ इंसाफ करना चाहोगे ही नहीं। उस लक्ष्य में तुम्हारा सरोकार ही कितना है, उस लक्ष्य में तुम्हारी आंतरिकता, आत्मीयता ही कितनी है, वो लक्ष्य तुम्हारा है ही कितना भाई! वो तो यूँ ही बन गया था।
चची और ताई ने मंत्रणा की कि चौपले पर तुम्हारी दुकान खुलवा दी जाए। तुम बड़े खुश हुए, खुलवा दी गई। फिर चचा और ताऊ ने मंत्रणा की कि महीने की दस लाख बिक्री का तुमको लक्ष्य दे दिया जाए। तुमने कहा, "दुकान तक तो ठीक था अब ये भी करना पड़ेगा?" महीना, दो महीना, चार महीना तुमने जो मेहनत करनी थी करी, उसके बाद लगे दुकान पर ही सोने। क्यों?
न दुकान तुम्हारी, न माल तुम्हारा, न इरादा तुम्हारा, इस लक्ष्य के प्रति समर्पित हो भी कैसे पाओगे भाई? आमतौर पर हमारे जीवन के सब लक्ष्य ऐसे ही आते हैं न। तो नहीं हो पाते हम समर्पित।
हमारे तो कई बार पति-पत्नी भी ऐसे ही आते हैं। चचा, ताई, ताऊ इन सब ने मिल करके पति दिला दिया या पत्नी दिला दी। फिर हमें भीतर-भीतर बड़ी ग्लानि रहती है कि पत्नी श्री या पति श्री के प्रति हम समर्पित नहीं हो पाते। कैसे हो पाओगे? तुम्हारे हों तब हो पाओगे न।
ज़िम्मेदारी उसी की उठा पाओगे और हँसते-हँसते उठाओगे और कृतज्ञता के साथ उठाओगे जो कुछ तुम्हारे ह्रदय से आया है। जो तुम्हारे ह्रदय से नहीं आया उसकी ज़िम्मेदारी उठाओगे तो बोझ ही लगेगी।