किसको मान रहे हो अपना?
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एक मूल बात, सिद्धान्त समझिएगा। बाहर जो कुछ भी है वो किसी बाहरी चीज़ पर ही प्रभाव डाल सकता है न? दूसरे शब्दों में हर चीज़ अपने ही तल की किसी चीज़ से प्रतिक्रिया कर सकती है न? जो जहाँ का है वो वहीं के अन्य पदार्थों, अन्य इकाइयों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है न?
अब बाहरी और आंतरिक में अंतर समझिएगा। आप जिसको आंतरिक बोलते हैं अगर वो बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित हो जाता है तो या तो आंतरिक बाहरी है या बाहरी आन्तरिक है, पर एक बात पक्की है कि दोनों एक हैं। क्योंकि बाहर की चीज़ बाहर की ही चीज़ पर प्रभाव डाल सकती है और अंदर की चीज़ का सम्बंध अंदरूनी चीज़ों से ही हो सकता है। आप कहें, “घटना बाहर घटी है, हिल गया कुछ भीतर-भीतर,” तो इसका मतलब है जो भीतर-भीतर लग रहा है, वो भी है ‘बाहर’।
खेद की बात ये है कि हम में से ज़्यादातर की आत्मा बाहरी ही होती है। या तो कह दो कि आत्मा बाहरी होती है या ये कह दो कि आत्मा होती ही नहीं, हम आत्मा से बहुत दूर निकल आए हैं।
आत्मा माने वो जो सर्वथा निजी है, आत्मिक, अपनी।
जो ही व्यक्ति लगातार दुनिया के ही भरोसे रहेगा, दुनिया से ही संबंधित रहेगा, उसको यही सज़ा मिलेगी। सुख भी मिलेगा, बराबर का मिलेगा। क्योंकि दुनिया में सज़ा-ही-सज़ा नहीं है। सिर्फ़ सज़ा-ही-सज़ा होती तो सब मुक्त हो गए होते।
सज़ा कौन झेलना चाहता है?
माया इतनी बेवकूफ़ नहीं है कि लगातार आपको सज़ा ही देती रहे। फ़िर आप फँसेंगे ही नहीं। वो बीच-बीच में चटखारे देती है, सुख देती है। और एक बार सुख मिल गया तो बंध जाती है।
अगर टीवी के पर्दे पर जो चल रहा है उसको मैंने इतनी हैसियत दे दी कि वो मुझे अंदर तक छू जाए, झकझोर दे, उत्तेजित या निराश कर दे, तो फिर संसार के पर्दे पर जो चलेगा उससे कैसे बच जाऊँगा? जब सिनेमा के पर्दे से अछूते नहीं रह सकते तो संसार के पर्दे से अछूते कैसे रह जाओगे भाई?
पर हमें तो सिनेमाबाज़ लोग ही हिला जाते हैं।
संसार का तो हमें पता भी नहीं कि सिर्फ़ ये पर्दा है। तो संसार में जो कुछ हो रहा है वो आपको क्यों न रुला जाए? क्यों न रुला जाए, बताइए?
हर छोटी-छोटी बात को अपने सर पर चढ़ा लेने का हमने अभ्यास कर लिया है। बाहर कोई भी घटना घट रही हो, उसको बहुत तवज्जो, उसे बहुत महत्व देने का अभ्यास कर लिया है हमने।
और उससे लाभ क्या होता है?
कई लाभ हैं जिसमें प्रमुख लाभ ये होता है कि आपको ये लगता है कि आप भी समूह के हिस्से हैं।
आत्मा को तो हमने कुचल ही डाला। कुचला उसे जा नहीं सकता, पर अपनी ओर से तो हमने उसे नष्ट ही कर दिया। कुछ भी आत्मिक रहने नहीं दिया।
आत्मिक माने समझ रहे हो न? वो जिसे छुआ नहीं जा सकता। वो जिसपर किसी का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता। वैसा हमने अपनी ज़िंदगी में कुछ छोड़ा है? बताइए? बहिर्दशा, अंतर्दशा कब बन जाती है हमें पता हीं नहीं चलता और हम इस प्रक्रिया को रोकना भी नहीं चाहते। ये बात कितनी विवशता और बेचारगी और गुलामी की है न? घटनाएँ हमें बदल डालती हैं। बिलकुल झंझोड़ देती हैं और हमें ऐसा कहते हुए, ऐसा होने देते हुए लज्जा भी नहीं आती। बल्कि यदि हमारी हालत ख़राब हो तो हम इस बात को अपनी रक्षा में, अपनी दलील की तरह प्रस्तुत करते हैं कि मैं क्या करूँ घटनाएँ ही कुछ ऐसी घटीं।
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