किसको मान रहे हो अपना?

एक मूल बात, सिद्धान्त समझिएगा। बाहर जो कुछ भी है वो किसी बाहरी चीज़ पर ही प्रभाव डाल सकता है न? दूसरे शब्दों में हर चीज़ अपने ही तल की किसी चीज़ से प्रतिक्रिया कर सकती है न? जो जहाँ का है वो वहीं के अन्य पदार्थों, अन्य इकाइयों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है न?

अब बाहरी और आंतरिक में अंतर समझिएगा। आप जिसको आंतरिक बोलते हैं अगर वो बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित हो जाता है तो या तो आंतरिक बाहरी है या बाहरी आन्तरिक है, पर एक बात पक्की है कि दोनों एक हैं। क्योंकि बाहर की चीज़ बाहर की ही चीज़ पर प्रभाव डाल सकती है और अंदर की चीज़ का सम्बंध अंदरूनी चीज़ों से ही हो सकता है। आप कहें, “घटना बाहर घटी है, हिल गया कुछ भीतर-भीतर,” तो इसका मतलब है जो भीतर-भीतर लग रहा है, वो भी है ‘बाहर’।

खेद की बात ये है कि हम में से ज़्यादातर की आत्मा बाहरी ही होती है। या तो कह दो कि आत्मा बाहरी होती है या ये कह दो कि आत्मा होती ही नहीं, हम आत्मा से बहुत दूर निकल आए हैं।

आत्मा माने वो जो सर्वथा निजी है, आत्मिक, अपनी।

जो ही व्यक्ति लगातार दुनिया के ही भरोसे रहेगा, दुनिया से ही संबंधित रहेगा, उसको यही सज़ा मिलेगी। सुख भी मिलेगा, बराबर का मिलेगा। क्योंकि दुनिया में सज़ा-ही-सज़ा नहीं है। सिर्फ़ सज़ा-ही-सज़ा होती तो सब मुक्त हो गए होते।

सज़ा कौन झेलना चाहता है?

माया इतनी बेवकूफ़ नहीं है कि लगातार आपको सज़ा ही देती रहे। फ़िर आप फँसेंगे ही नहीं। वो बीच-बीच में चटखारे देती है, सुख देती है। और एक बार सुख मिल गया तो बंध जाती है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org